पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/४०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०७
प्रेमाश्रम


ज्ञानशंकर ने नदी को कातर नेत्रो से देखा। उनका शरीर काँप उठा, वह रोने लगे। उनका दुख नदी से कही अपार था।

जीवन की घटनाएँ सिनेमा चित्रो के सदृश्य उनके सामने मूर्तिमान हो गयी। उनकी कुटिलताएँ आकाश के तारागण से भी उज्ज्वल थी। उनके मन ने प्रश्न किया, क्या मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है?

नैराश्य ने कहा, नही, कोई उपाय नहीं! वह घाट के एक पील पाये पर जा कर खड़े हो गये। दोनों हाथ तौले, जैसे चिडिया पर तौलती हैं, पर पैर न उठे।

मन ने कहा, तुम भी प्रेमाश्रम में क्यों नही चले जाते? ग्लानि ने जवाब दिया, कौन मुँह ले कर जाऊँ? मरना तो नहीं चाहता, पर जीऊँ कैसे? हाय मैं जबरन मारा जा रहा हूँ। यह सोच कर ज्ञानशंकर जोर से रो उठे। आँसू की झड़ी लग गयी। शोक और भी अथाह हो गया। चित्त की समस्त वृत्तियाँ इस अथाह शोक में निमग्न हो गयी। धरती और आकाश, जल और थल सब इसी शौक-सागर में समा गये।

वह एक अचेत, शून्य दशा में उठे और गंगा में कूद पड़े। शीतल जल ने हृदय को शान्त कर दिया।

उपसंहार

दो साल हो गये है। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ बड़ी रौनक और सफाई दिखायी दी। प्राय सभी द्वारो पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश घरो पर सुफेदी हो गयी थी। फूस के झोपडे गायब हो गये थे। अब सब घरो पर खपरैल थे। द्वारो पर बैल के लिए पक्की घरनियाँ बनी हुई थी और कईं द्वारों पर घोडे बँधे हुए नजर आते थे। पुराने चौपाल में पाठशाली थी और उसके सामने एक पक्का कुँआ और धर्मशाला थी। मायाशंकर को देखते ही लोग अपने-अपने काम छोड़ कर दौड़े और एक क्षण में सैकड़ो आदमी जमा हो गये। मायाशंकर सुक्खू चौधरी के मन्दिर पर रुके। वहाँ इस वक्त बड़ी बहार थी। मन्दिर के सामने सहन ने भाँति-भाँति के फूल खिले हुए थे। चबूतरे पर चौघरी बैठे हुए रामायण पढ़ रहे थे और कई स्त्रियों बैठी हुई सुन रथी। मायाशंकर घोड़े से उतर कर चबूतरे पर जा बैठे।

सुखदास हुकबका कर खड़े हो गये और पूछा-सब कुशल है न? क्या अभी चले आ रहे हैं?

माया–हाँ, मैंने कहा चलू तुम लोगो से भेद-भाँट करता आऊँ।

सुख-बड़ी कृपा कीं। हमारे धन्य-भाग कि घर बैठे स्वामी के दर्शन होते है। यह कह कर वह लपके हुए घर में गये, एक ऊनी कालीन ला कर बिछा दी, कल्से में पानी खीच और शरबत घोलने लगे। मायाशंकर ने मुँह-हाथ धोया, शरबत पीया, घोड़े की लगाम उतार रहे थे कि कादिरखाँ ने ओ कर सलाम किया। माया ने कहा, कहिए खाँ साहब, मिजाज तो अच्छा है?