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प्रेमाश्रम

हैं। किसी को छोडना तो जानता ही नहीं। तुम्हें क्या करना है। जिसकी गाड़ियाँ पकड़ी जायेंगी वह आप निवट लेगा।

बलराज--वाह, लोगों में इतना ही बूता होता तो किसी की गाडी पकड़ी ही क्यो जाती ? सीधे का मुंँह कुत्ता चाटता है। यह चपरासी भी तो आदमी ही है।

रगी--तो तुम काहे को दूसरे के बीच में पड़ते हो? तुम्हारे दादा आज बहुत उदास थे और अमाँ रोती रही।

बलराज--क्या जाने क्यो रगी, जब से दुनिया का थोड़ा-बहुत हाल जानने लगा हूँ मुझसे अन्याय नही देखा जाता। जब किसी जबरे को किसी गरीब का गला दबाते देखता हूँ। तो मेरे बदन मे आग-सी लग जाती है। यही जी चाहता है कि चाहे अपनी जान है या जाय, इस जबरे का सिर नीचा कर दूँ। सिर पर एक भूत-सा सवार हो जाता है। जानता हूँ कि अकेला चना भाड नहीं फोड सकता, पर मन काबू से बाहर हो जाता है।

इसी तरह की बातें करते दोनो सो गये। प्रात काल बलराज घर गया, कसरत की, दूध पीया और अपना ढीला कुर्ता पहन, पगडी बाँध डिप्टी साहब के पडाव की ओर चल। मनोहर अब तक उनसे रूठे बैठे थे, अब जब्त न कर सके। पूछा, कहाँ जाते हो ?

बलराज–-जाता हूँ डिप्टी साहब के पास ।

मनोहर--क्यो सिर पर भूत मवार है? अपना काम क्यो नही देखते।

बलराज--देखूँगा कि पढ़े-लिखे लोगो का मिजाज कैसा होता है?

मनोहर--धक्के खाओगे, और कुछ नही ।

बलराज--धक्के तो चपरासियों के खाते हैं, इसकी क्या चिन्ता । कुते की जात पहचानी जायेगी।

मनोहर ने उसकी और निराशापूर्ण स्नेह की दृष्टि से देखा और कधे पर कुदाल रख कर हार की ओर चल दिया। बलराज को मालूम हो गया कि अब यह मुझे छोडा हुआ नाइ समझ रहे हैं, पर वह अपनी धुन में मम्न धा। मनोहर का यह विचार कि इस समय समझाने का उतना अमर न होगा जितना विरक्ति-भाव का, निष्फल हो गया। वह यौही घर से बाहर निकला, बलराम ने भी लट्ठ कधे पर रखा और कैम्प की ओर चला। किसी हाकिम के सम्मुख जाने का यह पहला ही अवसर था। मन में अनेक विचार आते थे। मालूम नहीं मिले, या न मिले, कही मेरी बातें सुनकर बिगड न जायँ, मुझे देते ही सामने ने निकलवा न दे, चपरासियों ने मेरी शिकायत अवश्य की होगी। क्रोध में भरे बैठे होगे। बाबू ज्ञानशंकर में इन दोती भी तो हैं। उन्होंने भी हम लोगों को ओर में उनके कान खुब भरे होगे। मेरी मुख देखते ही जल जायेंगे। उँह जो कुछ हो, एक नया अनुभव तो हो जायगा। यह पढे-लिखे लोग तो हैं जो सभाओं में और लाट साहब के दरदार में इन लोगों की भलाई की रट लगाया करते हैं, हमारे नेता बनने हैं। देखूँगा कि यह लोग अपनी बातो के कितने घनी हैं।

बलराज कैम्प में पहुँचा तो देखा कि जगह-जगह लकड़ी के अलाव जल रहे हैं, कहीं पानी गर्म हो रहा है, कही चाय बन रही है। एक ओर बुचड़ बकरे का मांस काट रहा