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प्रेमाश्रम


थे कि मातहतों और चपरासियों को अपना असवाव लादने के लिए गाड़ियों की जरूरत होती है। उन्हें इसका खर्च सरकार से नहीं मिलता। अतएव वे लोग गाड़ियाँ न रोके, तो उनका काम ही न चले। यह व्यवहार चाहे प्रजा को कष्ट पहुँचाए, पर क्षम्य है। उनके विचार में यह कोई ऐसी ज्यादती न थी। संभव था कि यही प्रस्ताव किसी सम्मानित पुरुष ने किया होता, तो वह उस पर विचार करते, लेकिन एक अक्खड़, गँवार, मूर्ख देहाती को उनसे यह शिकायत करने का साहस हो, वह उन्हें न्याय का पाठ पढ़ाने का दावा करे, यह उनके आत्माभिमान के लिए असह्य था। चिढ़कर बोले, जाकर सरिश्तेदार से पूछो।

बलराज-हुजूर ही उन्हें बुला कर पूछ लें, मुझे वह न बतायेंगे।

ज्वालासिंह–मुझे इस दर्द-सिर की फुर्सत नहीं है।

बलराज के तीवर पर वल पड़ गये। शिक्षित समुदाय की नीति-परायणता और सज्जनता पर उसकी जो श्रद्धा थी, वह क्षण-मात्र में भंग हो गयी। इन सद्भावों की जगह उसे अधिकार और स्वेच्छाचार का अहंकार अकड़ता दीख पड़ा। अहंकार के सामने सिर झुकाना उसने न सीखा था। उसने निश्चय किया कि जो मनुष्य इतना अभिमानी हो और मुझे इतना नीच समझे, वह आदर के योग्य नहीं है। इनमें और गौस खाँ था मामूली चपरासियों में अंतर ही क्या रहा? ज्ञान और विवेक की ज्योति कहाँ गयी थी? निःशंक हो, कर बोला--सरकारे इसे सिर-दर्द समझते हैं और यहाँ हम लोगों की जान पर बनी हुई है। हुजूर यहाँ धर्म के आसन पर बैठे हैं, और चपरासी लोग परजा को लूटते फिरते हैं। मुझे आपसे यह विनती करने का हौसला हुआ, तो इसलिए कि मैं समझता था, आप दोनों की रक्षा करेंगे। अब मालूम हो गया कि हम अभागों का सहायक परमात्मा के सिवा और कोई नहीं।

यह कह कर वह विना सलाम किये ही वहाँ से चल दिया। उसे एक नशा-सा हो गया था। बातें अवज्ञापूर्ण थीं, पर उनमें स्वाभिमान और सदिच्छा कूट-कूट कर भरी हुई थी। ज्वालासिंह में अभी तक सहृदयता का सम्पूर्णतः पतन न हुआ था। क्रोध की जगह उनके मन में सद्भावना का विकास हुआ। अब तक इनके यहाँ स्वार्थी और खुशामदी आदमियों का ही जमघट रहता था। ऐसे एक भी स्पष्टवादी मनुष्य से उनका सम्पर्क न हुआ था। जिस प्रकार मीठे पदार्थ खाने से ऊब कर हमारा मन कड़वी वस्तुओं की और लपकता है, उसी भाँति ज्वालासिंह को यें कड़वी बातें प्रिय लगीं। उन्होंने उनके हृदय-नेत्रों के सामने से पदाभिमान का पर्दा हटा दिया। जी में तो आया कि इस युवक को बुला कर उससे खूब बातें करू, किन्तु अपनी स्थिति का विचार करके रुक गये। वह बहुत देर तक वैये हुए इन बातों पर विचार करते रहे। अंतिम् शब्दों ने उनकी आत्मा को एक ठोंका दिया था, और वह जाग्रत हो गई थी। मन में अपने कर्तव्य का निश्चय कर लेने के बाद उन्होंने अहमद-साहब को बुलाया। सैयद ईजाद हुसैन ने वलराज को जाते देख लिया! कल का सारा वृत्तांत उन्हें मालूम ही था। ताड़ गये कि लौंडर डिप्टौं साह्य के पास फरियाद ले कर आया होगा। पहले तो