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प्रेमाश्रम

से गया-गुजरा समझता हूँ जो आप तो लाखो उड़ाये और अपने निकटतम सम्वन्धियो की बात भी न पूछे। वह तो अगर मर भी जाये तो मेरी आँखो मे आँसू न आये।

विद्या- तुम्हारी आत्मा इतनी सकुचित है, यह मुझे आज मालूम हुआ।

ज्ञान-ईश्वर को धन्यवाद दो कि मुझसे विवाह हो गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। लाला वरसो तक दही-दहीं हॉकते रहे, पर कोई सेस भी न पूछता था।

विद्यावती इस मर्भाधात को न सह सकी, क्रोध के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा। वह झमक कर वहाँ ने चली जाने को उठी किं इतने मै महरी नै एक तार का लिफाफा ला कर ज्ञानशकर के हाथ में रख दिया। लिखा था---

"पुत्र का स्वर्गवास हो गया, जल्द आहो।"

---कमलानंद

ज्ञानशकर ने तार का कागज जमीन पर फेक दिया और लम्बी साँस खीच कर बोले, हा ' शोक। परमात्मा, यह तुमने क्या किया।

विद्या ठिठक गयी।

ज्ञानशकर ने विद्या से कहा, विद्या हम लोगो पर वज्र गिर पड़ा, हमारा

विद्या ने कातर नेत्रों से देख कर कहा, मेरे घर पर तो कुशल है।

ज्ञानशकर हाय प्रिये, किस मुंह से कहूँ कि सब कुशल है। वह घर उजड़ गया, उस घर का दीपक बुझ गया! बाबू रामानद अब इस संसार में नही है। हा, ईश्वर।

विद्या के मुँह से सहसा एक चीख निकल गयी। विह्वल होकर भूमि पर गिर पड़ी और छाती पीट-पीट कर विलाप करने लगी। श्रद्धा दौडी हुई आयी। महरियाँ जमा हो गयी। घड़ी बहू ने रोना सुना तो अपनी बहू और पुत्रियों के साथ आ पहुँची। कमरे भै स्त्रियों की भीड़ लग गयी। मायाशकर माना को रोते देख कर चिल्लाने लगा। सभी स्त्रियों के मुख पर शोक की आभा थी और नेत्रों में करुणा का जल। कोई ईश्वर को कोसती थी, कोई समय की निंदा करती थी। अकाल मृत्यु कदाचित् हमारी दृष्टि में ईश्वर का सबसे बडा अन्याय है। यह विपत्ति हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाश कर देती है, हमें ईश्वरद्रोही बना देती है। हमे उनकी सह्न पई गयी है। लेकिन हमारी अन्याय पीडित आँखें भी यह दारुण दृश्य मन नहीं कर सकती। अकाल मृत्यु हमारे हृदय पट पर सब से कठोर दैवी आघात है। यह हमारे न्याय-ज्ञान पर सब से भयकर बलात्कार है।

पर हा स्वार्थ संग्राम। यह निर्दय व-प्रहार ज्ञानशकर को सुखद पुष्प वर्षा के तुल्य जान पड़ा। उन्हें क्षणिक शोक अवश्य हुआ, किंतु तुरत ही हृदय में नयी आकाक्षाएँ सगे भारने लगी। अब तक उनका जीवन लक्ष्यहीन था। अब उसमें एक महान लक्ष्य का विकास हुआ। विपुल सम्पत्ति का मार्ग निश्चित हो गया। ऊसर भूमि मै हरियाली लहरे मारने लगी। राय कमलानद के अद और कोई पुत्र न था। दो पुत्रियों में एक विधवा और नि सन्तान थी। विद्या को ही ईश्वर ने सतान दी थी और मायाशंकर अब राय साहब का वारिस था। कोई आश्चर्य नहीं कि ज्ञानशंकर को यह शोकमय व्यापार अपने सौभाग्य की ईश्वर कृत व्यवस्था जान पद्धती थी। वह मायाशकर की गोद में ले कर नीचे दीवानखाने में चले आये और विरामत