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प्रेमाश्रम

थे। इसी लिए उनकी बाते सुनने में लोगों को आनद मिलता था। इधर दस-बारह वर्षों से राजनीति में भी प्रविष्ट हो गये थे। कौसिंल भवन मे उनका स्थान प्रथम श्रेणी में था। उनकी राय सदैव निर्भीक होती थी। वह अवसर था समय के भक्त न थे। राष्ट्र या शासन के दास न बन कर सर्वदा अपनी विधार-शक्ति से काम लेते थे। इसी कारण कौसिंल में उनकी बड़ी शान थी। यद्यपि यह बहुत कम बोलते थे, और राजनीति भवन से बाहर उनकी आवाज कभी न सुनाई देती थी, किंतु जब बोलते थे तो अच्छे ही बोलते थे। ज्ञानशंकर को उनके बुद्धि-चमत्कार और ज्ञान-विस्तार पर अचम्भा होता था। यदि आँखो देखी बात न होती तो किसी एक व्यक्ति में इतने गुणों की चर्चा सुन कर उन्हें विश्वास न होता। इस सत्संग से उनकी आँखे खुल गयी। उन्हें अपनी योग्यता और चतुरता पर बड़ा गर्व था। इन सिद्धियों ने उसे चूर-चूर कर दिया। पहले दो सप्ताह तक तो उन पर श्रद्धा का एक नशा छाया रहा। राय साहब जो कुछ कहते वह सब उन्हें प्रामाणिक जान पड़ता था। पग-पग पर, बात-बात मे उन्हें अपनी त्रुटियाँ। दिखाई देती और लज्जित होना पड़ता। यहाँ तक कि साहित्य और दर्शन मे भी, जो उनके मुख्य विषय थे, राय साहब के विचारों पर मनन करने के लिए उन्हें बहुत कुछ सामग्री मिल जाती थी। सबसे कुतूहल की बात तो यह थी कि ऐसे दारुण शौक के बोझ के नीचे राय साहब क्यों कर सीधे खड़े रह सकते थे। उनके विलास उपवन पर इम दुस्सह झोके का जरा भी असर ने दिखाई देता था।

किंतु शनै-शनै ज्ञानशंकर को राय साहब की इस बहुशता से अश्रद्धा होने लगी। आठों पहर अपनी हीनता का अनुभव असह्य था। उनके विचार में अब राय साहब का इन आमोद-प्रमोद विषयों में लिप्त रहना शोभा नहीं देता था। यावज्जीवन विलासिता में लीन रहने के बाद अब उन्हें विरक्त हो जाना चाहिए था। इस आमोद-लिप्सा की भी कोई सीमा है? इसे सजीविता नहीं कह सकते, यह निश्चलता नहीं, इसे धैर्य कहना ही उपयुक्त है। धैर्य कभी सजीवता और वासना का रूप नही धारण करता। चह हृदय पर विरक्ति, उदासीनता और मलीनता की रंग फेर देता है। वह केवल हृदयदाह है, जिससे आँसू तक सूख जाता है। वह शौक भी अतिम अवस्था है। कोई योगी, सिद्ध महात्मा भी जवान बेटे का दाग दिल पर रखते हुए इतना अविचलित नही रह सकता। यह नग्न इंद्रियोंपासना है। अहंकार ने महात्मा का दमन कर दिया, ममत्व ने हृदय के कोमल भावों का सर्वनाश कर दिया है। ज्ञानशंकर को अब रायसाहब कीं एक-एक बात मे क्षुद्र विलासिता की झलक दिखाई देती। वह उनके प्रत्येक व्यवहार को तीव्र समालोचना की दृष्टि से देखते।

परंतु एक महीना गुजर जाने पर भी ज्ञानशंकर ने कभी बनारस जाने की इच्छा नहीं प्रकट की। यद्यपि विद्यावती को उनके साथ जाने पर राजी न होना उनके यहाँ पड़े रहने का अच्छा बहाना था, पर वास्तव में इसको एक दूसरा ही कारण था, जिसे अंतः करण में भी व्यक्त करने का उन्हें साहस न होता था। गायत्री के कोमल भाव और मृदुल रसमयी बातों को उनके चित्त पर आकर्षण होने लगा था। उसका विक