पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७८
प्रेमाश्रम

पिलाती है, आप चल कर बैठ जाइए, नहीं तो शायद जगह ही न मिले।

यह कह कर वह गायत्री को लिए हुए पंडाल में घुस गये। पहले दरजे के मरदाने और जनाने भागों के बीच में केवल एक बीच का परदा था। चिक के बाहर ज्ञानशंकर बैठे और चिक के पास ही भीतर गायत्री को बैठाया। वही दोनों जगहे उन्होंने रिजर्व (स्वरक्षित) करा रखी थी।

गायत्री जल्दी से गाड़ी से उतर कर ज्ञानशंकर के साथ चली आयी थी। विद्या अभी आयेगी, यह उसे निश्चय था। लेकिन जब उसे बैठे कई मिनट हो गये, विद्या न दिखाई दी और अंत में ज्ञानशंकर ने आ कर कही, वह चली गयी, तो उसे बड़ा क्षोभ हुआ। समझ गयी कि वह रूठ कर चली गयीं। अपने मन में मुझे ओछी, निष्ठुर समझ रही होगी। मुझे भी उसी के साथ लौट जाना चाहिए था। उसके साथ तमाशा देखने मे हर्ज नही था। लोग यह अनुमान करते कि मैं उसकी खातिर से आयी हूँ, किन्तु उसके लौट जाने पर मेरा यहाँ रहना सर्वथा अनुचित है। घर की लौडियों और महरियाँ तक हँसेगी और उनका हँसना यथार्थ है, दादाज न जाने मन में क्या सोचेंगे। मेरे लिए अब तीर्थ-यात्रा, गंगा-स्नान, पूजा-पाठ, दान और व्रत हैं। यह विहार-विलास सोहागिन के लिए है। मुझे अवश्य लौट जाना चाहिए। लेकिन बाबू जी से इतना जल्द लौटने को कहूँगी तो वह मुझपर अवश्य झुँझलाएंगे, पछतायेंगें कि नाहक इसके साथ आया। बुरी फंसी। कुछ देर यहाँ बैठे बिना अब किसी तरह छुटकारा न मिलेगा।

यह निश्चय करके वह बैठी। लेकिन जब अपने आगे-पीछे दृष्टि पड़ी तो उसे वहाँ एक पल भर भी बैठना दुस्तर जान पड़ा। समस्त जनाना भाग वेश्याओं से भरा हुआ था। एक से एक सुन्दर, एक से एक रंगीन। चारों ओर से खस और मेंहदी की लपटे आ रही थीं। उनका आभरण और शृंगार, उनको ठाट-बाट, उनके हाव-भाव, उनकी मद-मुस्कान, सब गायत्री को घृणोत्पादक प्रतीत होते थे। उसे भी अपने रूप-लावण्य पर घमड़ था, पर इस सौंदर्य-सरोवर में वह एक जल-कण के समान विलीन हो गयी थी। अपनी तुच्छता का ज्ञान उसे और भी व्यस्त करने लगा। यह कुलटाएँ कितनी ढीठ, कितनी निर्लज्ज हैं। इसकी शिकायत नही कि इन्होनें क्यों ऐसे पापमय, ऐसे नारकीय पथ पर पग रखा। यह अपने पूर्व कर्मों का फल है। दुरवस्था जो न कराये थोड़ा, लेकिन यह अभिमान क्यों? ये इठलाती किंस बिरूते पर है? मालूम होता है, सब की सब नवाबजादियां हो। इन्हें तो शर्म से सिर झुकायें रहना चाहिए था। इनके रोम-रोम से दीनता और लज्जा टपकनी चाहिए थी। पर यह ऐसी प्रसन्न है मानों संसार में इनसे सुखी और कोई है ही नहीं। पाप एक करुणाजनक वस्तु हैं, मानवीय विवशता का द्योतक है। उसे देख कर दया आती, है, लेकिन पाप के साथ निर्लज्जता और मदाघता एक पैशाचिक लीला है, दया और धर्म की सीमा से बाहर।

गायत्री अब पल भर भी न ठहर सकी। ज्ञानशंकर से बोली, मैं बाहर जाती हूँ, यहाँ नहीं बैठा जाता, मुझे घर पहुँचा दीजिए।