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प्रेमाश्रम

उसे समय था कि ज्ञानशकर वहाँ ठहरने के लिए आग्रह करेगे। चलेगे भी तो क्रुद्ध हो कर। पर यह बात न थी। ज्ञानशकर सहर्प उठ खड़े हुए। बाहर आ कर एक बग्घी किराये पर की और घर चले।

गायत्री ने इतना जल्द थिएटर से लौट आने के लिए क्षमा माँगी। फिर वेश्याओं की बेशरमी की चर्चा की, पर ज्ञानशकर ने कुछ उत्तर न दिया। उन्होने आज मन में एक विषम कल्पना की थी और इस समय उसे कार्य रूप में लाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को इस प्रकार एकाग्र कर रहे थे, मानों किसी नदी में कूद रहे हो। उनका हृदयाकाश मनोविकार की काली घटाओं से आच्छादित हो रहा था, जो इधर महीनो से जमा हो रही थी। वह ऐसे ही अवसर की ताक में थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थिर कर लिया। लक्षणो से उन्हें गायत्री के सहयोग का भी निश्चय होता जाता था। उसका थिएटर देखने पर राजी हो जाना, विद्या के साथ घर न लौटना, उनके साथ अकेले बग्घी में बैठना इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे। कदाचित् उन्हे अवसर देने के ही लिए वह इतनी जल्द लौटी थी, क्योकि घर की फिटन पर लौटने से काम में विघ्न पड़ने का भय था। ऐसी अनुकूल दशा में आगा-पीछा करना, उनके विचार में वह कापुरुषता थी, जो अभीष्ट सिद्धि की घातक है। उन्होंने किताबो में पढ़ा था कि पुरुषोचित उद्दडता वगीकरण का सिद्धमत्र हैं। तत्क्षण उनकी विकृत-चेष्टा प्रज्ज्वलित हो गयी, आँखो से ज्वाला निकलने लगी, रक्त खौलने लगा, साँस वेग से चलने लगी। उन्होंने अपने घुटने से गायत्री की जाँघ मे एक ठोका दिया। गायत्री ने तुरत पैर समेट लिए, उसे कुचेष्टा की लेश-मात्र भी शका न हुई। किंतु एक क्षण के बाद जानशकर ने अपने जलते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड कर धीरे से दबा दी। गायत्री ने चौक कर हाथ खीच लिया, मानो किसी विषधर ने काट खाया हो, और भयभीत नेत्रों से ज्ञानशकर को देखा। सड़क पर बिजली की लालटेनें जल रही थीं। उनके प्रकाश मे ज्ञानशकर के चेहरे पर एक सतप्त उग्रता, एक प्रदीप्त दुस्साहस दिखायी दिया। उसका चित्त अस्थिर हो गया, आँखो मे अँधेरा छा गया, सारी देह पसीने से तर हो गयी। उसने कातर नेत्रों से बाहर की ओर झाँका। समझ न पडा कि कहाँ हैं, कब घर पहुँचूँगी। निर्वल क्रोध की एक लहर नसो में दौड़ गयी और आँखो से बह निकली। उसे फिर ज्ञानशकर की ओर ताकने का साहस न हुआ। उनसे कुछ कह न सकी। उसका क्रोध भी शात हो गया। वह सज्ञाशून्य हो गयीं। सारे मनोवेग शिथिल पड़े गये। केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान हृदय को चीर रहा था। उसकी वह वस्तु लुट गयी, जो उसे जान से भी अधिक प्रिय थी, जो उसके मन की रक्षक, उसके आत्म-गौरव की पोषक, धैर्य का आधार और उसके जीवन का अवलम्व थी। उसका जी डूबा जाता था। सहसा उसे जाने पडा कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रही। अब तक उसका ध्यान अपने अपमान के इस वाह्य स्वरूप की ओर नही गया था। अब उसे ज्ञात हुया कि यह केवल मेरा आमिक पतने ही नहीं है, उसने मेरी आत्मा को कलुषित नहीं किया, बरन् मेरी बाह्य प्रतिष्ठा का भी सर्व-