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प्रेमाश्रम

नाश कर दिया। इस अवर्गात ने उसके डूबते हुए हृदय को थाम लिया। गोली खा कर दम तोड़ता हुआ पक्षी भी छुरी को देख कर तड़प जाता है।

गायत्री जरा सँभल गयी, उसने ज्ञानशंकर की ओर सजल आँखों से देखा। कहना चाहती थी, जो कुछ तुमने किया उसका बदला तुम्हें परमात्मा देंगे। लेकिन यदि सौजन्यता का अल्पाश भी रह गया है तो मेरी लाज रखना, सतीत्व का नाश तो हो गया पर लोकसम्मान की रक्षा करना, किंतु शब्द न निकले, अश्रु-प्रवाह में विलीन हो गये।

ज्ञानशंकर को भी मालूम हो गया कि मैंने धोखा खाया। मेरी उद्विग्नता ने सारी काम चौपट कर दिया। अभी तक उन्हें अपनी अधोगति पर लज्जा न आयी थी। पर गायत्री की सिसकियां सुनी तो हृदय पर चोट-सी लगी। अंतरात्मा जाग्रत हो गयी, शर्म से गर्दन झुक गयी। कुवासना लुप्त हो गया। अपने पाप की अधमता का ज्ञान हुआ। ग्लानि और अनुताप के भी शब्द मुँह तक आये, पर व्यक्त न हो सके। गायत्री की ओर देखने की भी हौसला न पड़ा। अपनी मलिनता और दुष्टता अपनी ही दृष्टि में ही मालूम होने लगी। हाँ! मैं कैसा दुरात्मा हूँ। मेरे विवेक, ज्ञान और सद्विचार ने आत्महंसा के सामने सिर झुका दिया। मेरी उच्च शिक्षा और उच्चादर्श का यही परिणाम होना था अपने नैतिक पतन के ज्ञान ने आत्म-वेदना का संचार कर दिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा प्रवाहित हो गयी।

दोनो प्रार्थी खिड़की से सिर निकाले रोते रहे, यहाँ तक कि गाड़ी घर पर पहुँच गयी।



११

आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता हैं, तब वायु के प्रचंड झोके, बिजली की चमक और कड़क भी बंद हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शांति भी द्रवीभूत हो गयी थी। हृदय मे रुधिर की जगह आँसुओं का संचार हो रहा था।

आधी रात बीत गयी, पर उसके आँसू न थमे। उसका आत्मगौरव आज नष्ट हो। गया। पति-वियोग के बाद उसकी मुदृढ स्मृति ही गायत्री के जीवन-सुख की नीच थी। वही साधुकल्पना उसकी उपास्य थी। वह इस हृदय-कोप को, जहाँ यह अमूल्य रत्न संचित या, कुटिल आकांक्षाओं की दृष्टि से बचाती रहती थी। इसमें संदेह नहीं किं वह वस्त्राभूषणों से प्रेम रखती थी, उत्तम भोजन करती थी और सदैव प्रसन्न चित्त रहती थी, किन्तु इसका कारण उसकी विलासप्रियता नहीं, वरन् अपने सतीत्व का अभिमान था। उसे संयम और आचार का स्वांग भरने से घृणा थी। वह थिएटर भी देखती थी, आनदोत्सवों में भी शरीक होती थी। अभिरण, सुरुचि और मनोंरजन की सामग्रियों का त्याग करने की वह आवश्यकता न समझती थी, क्योंकि उसे अपनी चित्तस्थिति पर विश्वास था। वह एकाग्र हो कर अपने इलाके का प्रबंध करती थी।

जब उसके आँसू थमें तो वह इन दुर्घटना के कारण और उत्पत्ति पर विचार करने लगी, और शनै शनै उसे विदित होने लगा कि इस विषय में मैं सर्वथा निरपराध नहीं