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प्रेमाश्रम

हैं। ज्ञानशंकर कदापि यह दुस्साहस न कर सकते, यदि उन्हे मेरी दुर्बलता पर विश्वास न होता। उन्हें यह विश्वास क्योंकर हुआ? मैं इन दिनों उनसे बहुत स्नेह करने लगी थी। यह अनुचित था। कदाचित् इसी संम्पर्क ने उनके मन में यह भ्रम अंकुरित किया। तब उसे वह बात याद आती जो उन संगत में हुआ करती थी। उनका झुकाव उन्हीं विषयों की ओर होता था, जिन्हे एकान्त और संकोच की जरूरत है। उस समय वह बाते सर्वथा दोष रहित जान पड़ती थी, पर अब उनके विचार से ही गायत्री को लज्जा आती थी। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं अज्ञान दशा में धीरे-धीरे ढाल की और चली जाती थी, और अगर यह गहरी खाई सहसा न आ पड़ती, तो मुझे अपने पतन को अनुभव ही न होता। उसे आज मालूम हुआ कि मेरा पति-प्रेम-बंधन जर्जर हो गया, नहीं तो मैं इन वार्ताओं के आकर्षण से सुरक्षित रहती। वह अधीर हो कर उठी, और अपने पति के सम्मुख जा कर खड़ी हो गयी। इस चित्र को वह सदैव अपने कमरे में लटकाये रहती थी। उसने ग्लानिमय नेत्रों से चित्र को देखा, और तब काँपते हुए हाथ से उतार कर उसे छाती से लगाये देर तक खड़ी रोती रही। इस आत्मिक आलंगन से उसे एक विचित्र संतोष प्राप्त हुआ। ऐसा मालूम हुआ मानों कोई तड़पते हुए हृदय पर मरहम रख रहा है और कितने कोमल हाथों से। वह उस चित्र को अलग न कर सकी, उसे छाती से लगाये हुए बिछावन पर लेट गयी। उसका हृदय इस समय पतिप्रेम से आलोकित हो रहा था। वह एक समाधि की अवस्था में थी। उसे ऐसा प्रतीत होता था कि यद्यपि पतिदेव यहाँ अदृश्य है, तथापि उनकी आत्मा अवश्य यहाँ भ्रमण कर रही है। शनै शनै उसकी कल्पना सचित्र हो गयी। वह भूल गयी कि मेरे स्वामी को मरे तीन वर्ष व्यतीत हो गये। वह अकुला कर उठ बैठी। उसे ऐसा जान पड़ा कि उनके वक्ष से रक्त स्रावित हो रहा है और कह रहे हैं, 'यह तुम्हारी कुटिलता का घाव है। तुम्हारी पवित्रता और सत्यता मेरे लिए रक्षास्त्र थी। वह ढाल आज टूट गयी और बेवफाई की कटार हृदय में चुभ गयी। मुझे तुम्हारे सतीत्व पर अभिमान था। वह अभिमान आज चूर-चूर हो गया। शोक! मेरी हत्या उन्हीं हाथों से हुई जो कभी मेरे गले मे पड़े थे। आज तुमसे नाता टूटता है, भूल जाओ कि मैं कभी तुम्हारा पति था।' गायत्री स्वप्न-दशा में उसी कल्पित व्यक्ति के सम्मुख हाथ फैलाये हुए विनय कर रही थी। शंका से उसके हाथ-पाँव फूल गये और वह चीख मार कर भूमि पर गिर पड़ी।

वह कई मिनट तक बेसुध पड़ी रहीं। जब होश आया तो देखा कि विद्या, लौडियाँ मरियाँ सब जमा हैं और डाक्टर को बुलाने के लिए आदमी दौड़ाया जा रहा है।

उसे आँखें खोलते देख कर विद्या झपट कर उसके गले से लिपट गयी और बोली, बहन, तुम्हें क्या हो गया था और तो कभी ऐसा न हुआ था।

गायत्री—कुछ नहीं, एक बुरा स्वप्न देख रही थी। लाओ, थोड़ा-सा पानी पीऊँगी, गला सूख रहा है।

विद्या--थिएटर में कोई भयावना दृश्य देखा होगा।

गायत्री–नहीं, मैं भी तुम्हारे आने के थोड़ी ही देर पीछे चली आयी थी। जी