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प्रेमाश्रम

कैसे, कुछ घर मे पूँजी भी तो हो। अभी रब्बी मे महीनो की देर है और घर में अनाज का दाना नहीं है। गुड एक सौ रुपये से कुछ ऊपर ही हुआ है, लेकिन बैल बैठाऊँ हो गया है, डेढ़ सौ लगेगे तब कही एक बैल आयेगा।

दुखरन--क्या जाने क्या हो गया कि अब खेती मे बरक्कत ही नहीं रही। पॉच बीघे रवी बोयी थी, लेकिन दस मन की भी आशा नही है और गुड का तुम जानते ही हो,जो हाल हुआ। कोल्हाडे मे ही बिसेसर साह ने तौला लिया। बाल-बच्चो के लिए शीरा तक न बचा। देखें भगवान कैसे पार लगाते है।

अभी यही बातें हो रही थी कि गिरधर महाराज आते हुए दिखायी दिये। लम्बा डील था, भरा हुमा बदन, तनी हुई छाती, सिर पर एक पगडी, वदन पर एक चुस्त मिरजई। मोटा-सा लट्ठ कधे पर रखे हुए थे। उन्हे देखते ही सब लोग माँचो से उतर कर जमीन पर बैठ गये। यह महाशय जमीदार के चपरासी थे। जवान से सबके दोस्त, दिल से सब के दुश्मन थे। जमीदार के सामने जमीदार की-सी कहते थे, असामियो के सामने असामियो की-सी। इसलिए उनके पीठ पीछे लोग चाहे उनकी कितनी ही बुराइयांँ करें, मुंँह पर कोई कुछ न कहता था।

सुक्खू ने पूछा--कहो महाराज किधर से?

गिरधर ने इस ढग से कहा, मानो वह जीवन से असतुष्ट है-- किधर से वतायें, ज्ञान बाबू के मारे नाको दम है ! अब हुकुम हुआ है कि असामियो को धी के लिए रुपये दे दो। रुपये सेर का भाव कटेगा। दिन भर दौडते हो गया।

मनोहर--कितने का घी मिला?

गिरधार--अभी तो खाली रुपया बांट रहे है। बड़े सरकार की बरसी होनेवाली है। उसी की तैयारी है। आज कोई ५० रुपये बाँटे है।

मनोहर--लेकिन बाजार-भाव तो दस छटांँक का है।

गिरधर--भाई, हम तो हुक्म के गुलाम है। बाजार मे छटांँक भर बिके, हमको तो सेर भर लेने का हुक्म है। इस गांँव मे भी ५० रुपये देने हैं। बोलो सुक्खू महतो, कितना लेते हो?

सुक्खू ने सिर नीचा करके कहा, जितना चाहे दे दो, तुम्हारी जमीन मै बसे हुए है, भाग के कहाँ जायेगे?

गिरधर--तुम बड़े असामी हो । भला दस रुपये तो लो और दुखरन भगत, तुम्हे कितना है?

दुखरन--हमे भी पांँच रुपये दे दो।

मनोहर--मेरे घर तो एक ही भैस लगती है, उसका दूध वाल-बच्चो मे उठ जाता है, घी होता ही नहीं। अगर गाँव मे कोई कह दे कि मैने एक पैसे का भी घी बेचा है तो ५० रुपये लेने पर तैयार हूँ।

गिरधर--अरे क्या ५ रुपये भी न लोगे। भला भगत के बराबर तो हो जाओ।

मनोहर--भगत के घर मे भैस लगती है, पी बिकता है, वह जितना चाहे ले लें।