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प्रेमाश्रम

मुफ्तखोरी ने उन्हें इतना आत्मशून्य बना दिया है कि चाहे जितनी रुखाई से पेश आओ टलने का नाम न लेंगे। अधिक नहीं तो दस परिवार ऐसे होंगे जो मेरी मृत्यु का स्वप्न देखने में जीवन के दिन काट रहे हैं। उनका बस चले तो मुझे विष दे दे। किसी के यहाँ से कोई सौगात आये, मैं उसे हाथ तक नहीं लगाती। उनका काम बस यही हैं कि बैठे-बैठे उत्पात किया करें, मेरे काम में विघ्न डाला करें। कोई असामियों को फोड़ता है, कोई मेरे नौकर को तोड़ता है, कोई मुझे बदनाम करने पर तुला हुआ है। तुम्हें सुन कर हँसी आयेगी, कई महाशय विरासत की आशा में डेबढ़े-दूने सूद पर ऋण लेकर पेट पालते हैं। कुछ नहीं बन पड़ता तो उपवास करते है, किंतु बिरामत का अभिमान जीविका की कोई आयोजना नहीं करने देता। इन लोगों ने मेरी अनुपस्थिति में न जाने क्या-क्या गुल खिलाये होंगे। अभी मुझे जाने दो। बाबू जी भी जल्द ही पहाड़ पर चले जायेंगे। यदि ऐसी ही कोई जरूरत आ पड़े तो मुझे पत्र लिखना, चली आऊंगी।

दो दिन गायत्री ने किस प्रकार काटे। ज्ञानशंकर से फिर बात-चीत की नौबत नहीं आयी। तीसरे दिन वह विदा हुई। राय साहब स्टेशन तक पहुँचाने आये। ज्ञानशंकर भी साथ थे। गायत्री गाड़ी में बैठी। राय साहब खिड़की पर झुके हुए आम और खरबूजे, लौचियाँ और अगूर ले-लेकर गाड़ी में भरते जाते थे। गायत्री बार-बार कहती थी कि इतने फल क्या होंगे, कौन-सी बड़ी यात्रा है, किंतु राय साहब एक न सुनते थे। यह भी रियासत की एक न थी। ज्ञानशंकर एक बेंच पर उदास बैठे हुए थे। गायत्री को उन पर दया आ गयी। वियोग के समय हम सहृदय हो जाते हैं। चलते-चलते हम किसी पर अपना ऋण चाहे छोड़ जाये, किंतु ऋण लेकर जाना नहीं चाहते। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो ज्ञानशंकर चौंक कर बेंच पर से उठे और गायत्री के सम्मुख आ कर उसे लज्जित और प्रार्थी नेत्रों से देखा। उनमें आँसू भरे हुए थे। पश्चात्ताप की सजीव मूर्ति थी। गायत्री भी खिड़की पर आयी, कुछ कहना चाहती थी, पर गाड़ी चलने लगी।

ज्ञानशंकर की विनय-मूर्ति रास्ते भर उसकी आँखो के सामने फिरती रही।



१२

गायत्री के जाने के बाद जानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किंतु एक ही ठोकर में चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये; वह प्राण-पोपक शीतल वायु, वह विस्तृन नभमंडल और सुखद कामनाएँ लुप्त हो गयी, और वह फिर उसी अंधकार में निराश और विडम्बित पड़े हुए थे। उन्हें लक्षणों से विदित होता जाता था कि राय साहब विवाह करने पर तुले हुए हैं और उनका दुर्बल क्रोध दिनों-दिन अदम्य होता जाता था। वह राय साहब की इद्रिय-लिप्सा पर, क्षुद्रता पर झल्ला-झल्ला कर रह जाते थे। कभी-कभी अपने को समझाते कि मुझे बुरा मानने की कोई अधिकार नहीं, राय साहब अपनी जायदाद के मालिक हैं, उन्हें विवाह करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, वह