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प्रेमाश्रम


एजेंट-मैं श्रीमान से विवाद करने की इच्छा तो नहीं रखता, पर मैं स्वयं छोटामोटा किसान हैं और मुझे किसानों की दशा का यथार्थ ज्ञान है। आप योरोप के किसानों को गुलाम कहते हैं, लेकिन यहाँ के किसानों की दशा उससे अच्छी नही है। नैतिक बंधनों के होते हुए भी जमींदार कृषकों पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और कृषकों की जीविका का और कोई द्वार हो तो वह इन आपत्तियों को भी कमी न झेल सकें।

राय साहब–जब नैतिक व्यवस्थाएँ विद्यमान है तो विदित है कि उनका उपयोग करने के लिए किसानों को केवल उचित शिक्षा की जरूरत है, और शिक्षा का प्रचार दिनों-दिन बढ़ रहा है। मैं मानता हूँ कि जमींदार के हाथों किसानों की घड़ी दुर्दशा होती है। मैं स्वयं इस विषय में सर्वथा निर्दोष नहीं हूँ, बेगार लेता हूँ, डाँड़-बीज भी लेता हूँ, बेदखली या इजाफा का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता, असामियों पर अपना रोब जमाने के लिए अधिकारियों की खुशामद भी करता हैं, साम, दाम, दंड, भेद सभी से काम लेता हैं, पर इसका कारण क्या है? वही पुरानी प्रथा, किसानों की मूर्खता और नैतिक अज्ञान। शिक्षा का यथेष्ट प्रचार होने ही जमींदारों के हाथ से यह सब मौके निकल जायेंगे। मनुष्य स्वार्थी जीव है और यह असम्भव है कि जब तक उसे धीगा-धीगी के मौके मिलते रहे, वह उनसे लाभ न उठाये। आपका यह कथन सत्य है कि किसानों को यह विडम्बनाएँ इसलिए सहनी पड़ती है कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बंद हैं। निश्चय ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें हमेशा जमींदारों का गुलाम बनाये रखेगा, चाहे कानून उनकी कितनी ही रक्षा और सहायता क्यों न करे। किंतु यह साधन ऐसे होने चाहिए जो उनके आचारव्यवहार को भ्रष्ट न करे। उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनो के जाल में न फंसायें, उनके आत्माभिमान का सर्वनाश न करें! और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प का प्रचार किया जाय और वह अपने गाँव मे कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम करते रहे।

एजेंट-आपका अभिप्राय काटेज इंडस्ट्री (गृहउद्योग या कुटीर शिल्प) से हैं। समाचार-पत्रों मे कहीं-कहीं इनकी चर्चा भी हो रही है, किंतु इसका सबसे बड़ा पक्षपाती भी यह दावा नहीं कर सकता कि इसके द्वारा आप विदेशी वस्तुओं का सफलता के साथ अवरोध कर सकते है।

राय साहब-इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। यूरोपवाले दूसरे देशों से कच्चा माल ले जाते हैं, जहाज का किराया देते हैं, उन्हे मजदूरों को कड़ी मजूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारी को नफा खूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा और कोई कारण नहीं कि उचित संगठन के साथ वह विदेशी व्यापार पर विजय न पा सके। वास्तव में हमने कभी इस प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया। पूँजीवाले लोग इस समस्या पर विचार करते हुए डरते हैं। वे