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प्रेमाश्रम

पर क्या गुजरती है। जाओ, कहो-सुनो, धिक्कारो, आँखे चार होने पर कुछ न कुछ मुरौवत आ ही जाती है।

बिलासी–हाँ, अपनी वाली कर लो। आगे जो भाग में बदा है वह तो होगा ही।

नौ बज चुके थे। प्रकृति कुहरे के सागर में डूबी हुई थी। घरों के द्वार बन्द हो चुके थे। अलाव भी ठंडे हो गये थे। केवल सुक्खू चौधरी के कोल्हाड़े में गुड़ पक रहा था। कई आदमी भट्ठे के सामने आग ताप रहे थे। गांव की गरीब स्त्रियाँ अपने-अपने घड़े लिए गर्म रस की प्रतीक्षा कर रही थी। इतने में मनोहर आ कर सुक्खू के पास बैठ गया। चौधरी अभी चौपाल से लौटे थे और अपने मेलियों से दारोगा जी की सज्जनता की प्रशंसा कर रहे थे। मनोहर को देखते ही बात बदल दी और बोले, आओ मनोहर, बैठो। मैं तो आप ही तुम्हारे पास आनेवाला था। कड़ाह की चासनी देखने लगा। इन लोगों को चासनी की परख नहीं है। कल एक पूरा ताव बिगड़ गया। दारोगा जी तो बहुत मुँह फैला रहे है। कहते है, सबसे मुचलका लेंगे। उस पर सौ की थैली अलग माँगते है। हाकिमों के बीच मे बोलना जान जोखिम है। जरा-सी सुई का पहाड़ हो गया। मुचलका का नाम सुनते ही सब लोग थरथरा रहे है, अपने-अपने बयान बदलने पर तैयार हो रहे है।

मनोहर—तब तो बल्लू के फँसने में कोई कसर ही नहीं रही।

सुक्खू-हाँ, बयान बदल जायँगे तो उसका बचना मुश्किल है। इसी मारे मैंने अपना बयान न दिया था। खाँ साहब बहुत दम-भरोसा देते रहे, पर मैंने कहा, मैं ने इधर हूँ, न उधर हूँ। न आपसे बिगाड़ करूँगा, न गाँव से बुरा बनूंगा। इस पर बुरा मान गये। सारा गाँव समझता है कि खां साहब से मिला हुआ हैं, पर कोई बता दे कि उनसे मिलकर गाँव की क्या बुराई की? हाँ, उनके पास उठता-बैठता हैं। इतने से ही जब मेरा बहुत-सा काम निकलता है तब व्यवहार क्यों तोड़ूँ? मेल से जो काम निकलता है वह बिगाड़े करने से नहीं निकलता। हमारा सिर जमींदार के पैरों तले रहता है। ऐसे देवता को राजी रखने ही में अपनी भलाई है।

मनोहर—अब मेरे लिए कौन-सी राह निकालते हो?

सुक्खू मैं क्या कहूँ, गाँव का हाल तो जानते ही हो। तुम्हारी खातिर मुचलका देने पर कौन राजी होगा? कोई न मानेगा। बस, या तो भगवान का भरोसा है या अपनी गाँठ का।

मनोहर ने सुक्खू से ज्यादा बातचीत नहीं की। समझ गया कि यह मुझे मुद्दबाना चाहते है। कुछ दारोगा को देंगे, कुछ गौस खाँ के साथ मिल कर आप खो जायेंगे। इन दिनों उसका हाथ बिलकुल खाली था। नयी गोईं लेनी पड़ी, सब रुपये हाथ से निकल गये। खाँ साहब ने सिकमी खेत निकाल लिये थे। इसलिए रव्वी की भी आशा कम थी। केवल ऊख का भरोसा था, लेकिन बिसेसर साह के रुपये चुकाने थे और लगान भी बेबाक करना था। गुड़ से इससे अधिक और कुछ न हो सकता था। दूसरा ऐसा कोई महाजन न था जिसमें रुपये उधार मिल सकते। वह यहाँ से उठ कर