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प्रेमाश्रम

लोग मुचलके के डर से अपने बयान बदल दें। अपने ही लड़के को कुएँ में ढकेल दें।

मनोहर ने कादिर मियाँ को अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा। उसे ऐसा जान पड़ा मानो। यह कोई देवता हैं। कादिर की सम्मति जो साधारण न्याय पर स्थिर थी उसे अलौकिक प्रतीत हुई। डपटसिंह को भी यह सलाह संयुक्तिक ज्ञात हुई। मुचलके की शंका कुछ कम हुई। मन में अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हुए, जिस पर भी मन से यह विचार न निकल सका कि प्रस्तुत विषय का सारा भार बलराज के सिर है। बोले-कादिर भाई, यह तो तुम नाहक कहते हो कि मैंने बलराज को इस्तालुक दिया। मैंने बलराज से कब कहा कि तुम लश्करवालों से तूलकलाम करना। यह रार तो उसने आप ही बछायी। उसका स्वभाव ही ऐसा कड़ी ठहरा। आज को सिपाहियों से उलझा है, कल को किसी पर हाथ ही चला दे तो हम लोग कहाँ तक उसकी हिमायत करते फिरेंगे?

कादिर---तो मैं तुमसे कब कहता हूँ कि उसकी हिमायत करो। वह बुरी राह चलेगा तो आप ठोकर खायेगा। मेरा कहना यही है कि हम लोग अपनी आँखों की देखी और कानो की सुनी बातों में किसी के भय से उलट-फेर न करें। अपनी जान बचाने के लिए फरेब न करें। मुचलके की बात ही क्या, हमारा धरम है कि अगर सच कहने के लिए जेल भी जाना पड़े तो सच से मुँह न मोड़ें।

डपटसिंह को अब निकलने का कोई रास्ता न रहा, किन्तु फिर भी इस निश्चय को व्यावहारिक रूप में मानने की कोई सम्भावित मार्ग निकल आने की आशा बनी हुई थी। बोले, अच्छा मान लो हम और तुम अपने बयान पर अड़े रहे, लेकिन बिसेसर और दुखरन को क्या करोगे? यह किसी विध न मानेंगे।

कादिर-उनको भी खींचे लाता हूँ, मानेंगे कैसे नहीं। अगर अल्लाह का डर है। तो कभी निकल ही नहीं सकते।

यह कह कर कादिर खाँ चले गये और थोड़ी देर में दोनों आदमियों को साथ लिये हुए आ पहुँचे। बिसेसर साह ने तो आते ही डपटसिंह की और प्रश्नसूचक दृष्टि से आँख नचा कर देखा, मानों पूछना चाहते थे कि तुम्हारी क्या सलाह है, और दुखरन भगत, जो दोनों जून मन्दिर में पूजा करने जाया करते थे और जिन्हें रामचर्चा से कभी तृप्ति न होती थी, इस तरह सिर झुका कर बैठ गये, मानों उन पर बज्रपात हो गया है या कादिर खाँ उन्हें किसी गहरी खोह में गिरा रहे हैं।

इन्हें यहाँ बैठा कर कादिर खाँ ने अपने पगड़ी से थोड़ी-सी तमाखू निकाली, अलाव से आग लाये और दो-तीन दम लगा कर चिलम को डपटसिंह की ओर बढ़ाते हुए बोले, कहो भगत, कल दारोगा जी के पास चल कर क्या करना होगा।

दुखरन—जो तुम लोग करोगे वही मैं भी करूंगा। हाँ, मुचलको न देना पड़े। कादिर ने फिर उसी युक्ति से काम लिया, जो डपटसिंह को समझने में सफल हुई थी! सीधे किसान वितंडावादी नहीं होते। वास्तव में इन लोगों के ध्यान में यह बात ही न आयी थी कि बयान का बदलना प्रत्यक्ष जाल है। कादिर खाँ ने इस विषय का निदर्शन किया तो उन लोगों को सरल सत्य-भक्ति जाग्रत हो गयीं। दुखरन शीघ्र ही