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प्रेमाश्रम

उनसे सहमत हो गये। लेकिन बिसेसर पर उनके भापण को कुछ असर न हुआ। साहजी के यहाँ शक्कर और अनाज का कारबार होता था। डेवढ़ी-सवाई चलती थी, लेन-देन करते थे, दो हल की खेती होती थी, गाँजा-भाँग, चरस आदि का ठीका भी ले लिया था, पर उनका भेषभाव उन्हें अधिकारियों के पंजे से बचाता रहता था। बोले, भाई, तुम लोगों का साथ देने में मैं कहीं का न रहूँगा, चार पैसे का लेन-देन है। नरम-गरमी, डाँट-डपट किये बिना काम नहीं चल सकता। रुपये लेते समय तो लोग सगे भाई बन जाते हैं, पर देने की बारी आती है तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता। यह रोजगार ही ऐसा है कि अपने घर की जमा दे कर दूसरों से वैर मौल लेना पड़ता है। आज मुचलका हो जाय, कल को कोई मामला खड़ा हो जाय, तो गाँव मे सफाई के गवाह तक न मिलेगे और फिर संसार में रह कर अधर्म से कहाँ तक बचेंगे? यह तो कपट लोक है। अपने मतलब के लिये दगा, फरेब, जाल सभी कुछ करना पड़ता है। आज धरम का विचार करने लगें, तो कल ही सौ रुपये साल का टिकट बँध जाय, असामियों से कौड़ी न वसूल हो और सारा कोरबार मिट्टी में मिल जाय। इस जमाने में जो रोजगार रह गया है इसी बेईमानी का रोजगार है। क्या हम हुए क्या तुम हुए। सबका एक ही हाल है, सभी सुन की गाँठों में मिट्टी और लकड़ी भरते हैं, तेलहन और अनाज में मिट्टी और कंकर मिलाते हैं। क्या यह बेईमानी नहीं है? अनुचित बात कहता हो तो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। तुम लोगों को जैसा गौं पड़े जैसा करो, पर मैं मुचलको देने पर किसी तरह राजी नहीं हो सकता।

स्वार्थ नीति का जादू निर्बल आत्माओं पर खूब चलता हैं। दुखरन और डपटसिंह को यह बातें अतिशय न्यायसंगत जान पड़ी। यही विचार उनके हृदय में भी थे, पर किसी कारण से व्यक्त न हो सके थे। दोनों ने एक-दूसरे को मार्मिक दृष्टि से देखा। डपटसिंह बोले, भाई, बात तो सच्ची करते हो, संसार में रह कर सीधी राह पर कोई ही चल सकता। अधर्म से बचना चाहे तो किसी जंगल-पहाड़ में जा कर बैठे। यहाँ निबाह नहीं।

कादिर खाँ समझ गये कि साहु जी पर धर्म और न्याय का कुछ बस न चलेगा। यह उस वक्त तक काबू में न आयेंगे जब तक इन्हें यह न सूझेगा कि बयान बदलने में कौन-कौन सी बाधाएँ उपस्थित हो सकती है। बोले, साहू जी, तुम जो बात कहते हो बेलाग कहते हो। संसार में रह कर अधर्म से कहाँ तक कोई बचेगा? रात-दिन तो छलकपट करते रहते हैं। जहाँ इतने पापों का दंड भोगना है, एक पाप और सही। लेकिन यहाँ धर्म का ही विचार नहीं है न। डेरे तो यह है कि बयान बदल कर हम लोग और किसी संकट में न फंस जायें। पुलिसवाले किसी के नहीं होते। हम लोगों का पहला बयान दरोगा जी के पास रखा हुआ है। उस पर हमारे दसखत और अँगूठे के निशान भी मौजूद है। दूसरा बयान ले कर वह हम लोगों को जालसा गिरफ्तार कर ले तो सोचो कि क्या हो? सात बरस से कम की सजा न होगी। न भैया, इससे तो मुचलका ही अच्छा। आँख से देख कर मक्खी क्यों निगलें?'