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प्रेमाश्रम

सख्ती नहीं करता, सिर्फ काम की मजदूरी चाहता हूँ और खुशी से जो मुझसे काम लेना चाहे उजरत पेश करें। और मुझे महज अपनी फिक्र तो नहीं मेरे मातहत और भी तो कितने ही छोटी-छोटी तनख्वाहों के लोग हैं। उनका गुजर कैसे हो? गाँव मै आपकी धाक बँध जायगी, इससे मेरा फायदा? आप असामियों को लूटेंगे, मेरी गरज? गाँववालों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं, बल्कि वह गरीब तो मेरे पुराने वफादार असामी है। मैं मच्छर नहीं कि डक मारता फिरूं। कसम खा चुका हूँ, कि अब एक सौ से कम की तरफ निगाह न उठाऊँगा, यह रकम चाहे आप दे या काला चोर दे। मेरे सामने रकम आनी चाहिए। गुनाहे बेलज्जत नही कर सकता।

गौस खाँ ने बहुत मिन्नत समाअत की। अपनी हीन दशा का रोना रोया, अपनी दुरवस्था का पचड़ा गाया, पर दारोगा जी टस से मस न हुए। खाँ साहब ने लोगों को नीचा दिखाने का निश्चय किया था, इसी में उनका कल्याण था। दारोगा जी के पूजापंण के सिवा अन्य कोई उपाय न था। सोचा, जब मेरी धाक जम जायगी तो ऐसे-ऐसे कई सौ का वारा न्यारा कर दूंगा। कुछ रुपये अपने सन्दुक से निकाले, कुछ सुक्खू चौधरी से लिये और दारोगा जी की खिदमत में पेश किये। यह रुपये उन्होंने अपने गाँव में एक मसजिद बनवाने के लिए जमा किये थे। निकालते हुए हार्दिक वेदना हुई, पर समस्या में विवश कर दिया था। दयाशंकर ने काले-काले रुपयो का डेर देखा तो चेहरा खिल उठा। बोले, अब आपकी फतह है, वह रिपोर्ट लिखता हूँ कि मिस्टर ज्वालासिंह भी फड़क जायें। मगर आपने यह रुपये जमीन में दफन कर रखे थे क्या?

गौस खाँ–अब हुजूर कुछ न पूछे। बरसो की कमाई है। ये पसीने के दाग हैं।

दयाशंकर (हँस कर) आपके पसीने के दाग तो न होगे, हाँ असामियों के खूनेजिगरे के दाग हैं।

दस बजे रिपोर्ट तैयार हो गयी। दो दिन तक सारे गाँव मे कुहराम मचा रहा। लोग तलब हुए। फिर सबके बयान हुए। अन्त में सबसे सौ-सौ रुपये के मुचलके ले लिये गये। कादिर खाँ का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया।

शाम हो गयी थी। बाबू ज्वालासिंह शिकार खेलने गये हुए थे। फैसला कल सुनाया जानेवाला था। गौस खाँ ईजाद हुसेन के पास आ कर बैठ गये और बोले, क्या डिप्टी साहब अभी शिकार से वापस नहीं आये?

ईजाद हुसेन–कही घड़ी रात तक लौटेंगे। हुकूमत का मजा तो दौरे में ही मिलता है। घंटे आध घंटे कचहरी की, बाकी सारे दिन मटरगश्ती करते रहे। रोज नामचा भरने को लिख दिया, परताल करते रहे।

गौस खाँ-आपको तो मालूम ही हुआ होगा, दारोगा जी ने मुझे आज खूब पथरा।

ईजाद-इन हिन्दुओं से खुदा समझे। यह बल के मतअस्सिब होते हैं। हमारे साहब बहादुर भी बड़े मुन्सिफ बनते हैं, मगर जब कोई जगह खाली होती हैं तो वह हिन्दू को ही देते है। अर्दली चपरासी मजीद को आप जानते होंगे। अभी हाल में