पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
प्रेमाश्रम

रुपये पेश करो तो तुम्हारा मुचलका रद्द करा दें। यह चाल चल गयी तो पौ बारह है। इसी का नाम 'हम खुर्मा व हम सवाब' हैं। मैंने कोई ज्यादती नहीं की, कोई जब्र नहीं किया। यह गैबी इमदाद है। इससे मैं हिन्दुओं के मसलये तनीसुरू की कायल हूँ। जरूर इससे पहले की जिन्दगी में इस आदमी पर मेरे कुछ रुपये आते होंगे। आये दिन ऐसे शिकार फंसा करते हैं, गोया उन्हें रुपयों से कोई चिढ़ है। दिल में उनकी हिमाकत पर हँसता हूँ और अल्लाहू का शुक्र अदा करता हूँ कि ऐसे बंदे न पैदा करता तो हम जैसों को गुजर क्योंकर होता।



१४

राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया है। एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुंज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े है, कई मोटर गाड़ियाँ, बहुत-से नौकर। यहाँ वह राजाओं की भाँति शान से रहते हैं। कभी हिमराशियों की सैर, कमी शिकार, कभी झील में बजरी की बहार, कभी पोलो और गल्फ, कभी सरोद और सितार, कभी पिकनिक और पार्टियाँ, नित्य नये जल्से, नये प्रमोद होते रहते हैं। राय साहब बड़ी उमंग के साथ इन विनोद की बहार लूटते हैं। उनके बिना किसी महफिल, किसी जल्से को रंग नहीं जमता। वह सभी बरात के दूल्हे हैं। व्यवस्थापक सभा की बैठकें नियमित समय पर हुआ करती है, पर मेंम्बरों के राग-रग को देख कर यह अनुमान करना कठिन है कि वह आमोद को अधिक महत्व का विषय समझते हैं या व्यवस्थाओं के सम्पादन काे।

किंतु ज्ञानशंकर के हृदय की कली यहाँ भी न खिली। राय साहब ने उन्हें यहाँ के समाज से परिचित करा दिया। उन्हें नित्य दावतों और जल्स में अपने साथ ले जाते, अधिकारियों से उनके गुणों की प्रशसा करते, यहाँ तक कि उन्हें लेडियों से भी इद्रोइयूस कराया। इससे ज्यादा वह और क्या कर सकते थे? इस भित्ति पर दीवार उठाना उनको काम था, पर उनकी दशा उस पौधे की-सी थी जो प्रतिकूल परिस्थिति में जाकर माली के सुव्यवस्था करने पर भी दिनों-दिन सूखता जाता है। ऐसा जान पड़ता या कि वह किसी गहन घाटी में रास्ता भूल गये हैं। रत्न-जटित लेडियों के सामने वह शिष्टाचार के नियमों के ज्ञाता होने पर भी झेपने लगते थे। राय साहब उन्हें प्राय एकान्त में सभ्य व्यवहार के उपदेश किया करते। स्वयं नमूना बन उन्हें सिखाते, पुरुषों से क्योंकर बिना प्रयोजन ही मुस्कुरा कर बातें करनी चाहिए, महिलाओं के रूप लावण्य की क्योंकर सराहना करनी चाहिए, किन्तु अवसर पड़ने पर ज्ञानशंकर का मतिहरण हो जाता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि राय साहब इस वृद्धावस्था में भी लेडियों के साथ कैसे घुल-मिल जाते हैं, किस अन्दाज से बातें करते हैं कि बनावट का ध्यान भी नहीं हो सकता, मानों इसी जलवायु में उनका पालन-पोषण हुआ है।

एक दिन वह झील के किनारे एक बेंच पर बैठे हुए थे। कई लेडियों एक बजरे पर जल-क्रीड़ा कर रही थी। इन्हें पहचान कर उन्होंने इशारे से बुलाया और सैर