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प्रेमाश्रम

देश की अवनति का पचड़ा गाते है। भला यही है कि अधिकारी वर्ग इन महानुभाव को मुंह नहीं लगाते। कहीं वह इनकी बातों में आ जायें और देश का भाग्य इनके हाथों में दे दें तो जाति का कहीं नाम-निशान न रहे। यह सब दिन-दहाड़े लूट खायें। कोई इन भलेमानसो से पूछे, आप जो यहाँ लाखों रुपये सैर-सपाटो उडी रहे हैं, उससे जाति को क्या लाभ हो रहा है? यहीं धन यदि जाति पर अर्पण करते तो जाति तुम्हें धन्यवाद देती और तुम्हें पूजती, नहीं तो उसे खबर भी नहीं कि तुम कौन हो और क्या करते हो। उनके लिए तुम्हारा होना न होना दोनों बराबर हैं। प्रार्थी को इस बात से सन्तोष नहीं होता कि तुम दूसरों से सिफारिश करके उसे कुछ दिला दोगे, उसे संतोष होगा जब तुम स्वयं अपने पास से थोड़ा सा निकाल कर उसे दे दो।

ये द्रोहात्मक विचार ज्ञानशंकर के चित्त को मथने लगे। बाणी उन्हें प्रकट करने के लिए व्याकुल होने लगी। एक दिन वह डाक्टर चन्द्रशेखर से उलझ पड़े। इसी प्रकार एक दिन राजा इन्द्रकुमार से विवाद कर बैठे और मिस्टर हरिदास वैरिस्टर से तो एक दिन हाथापाई की नौबत आ गयी। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने ज्ञानशंकर का बहिष्कार करना शुरू किया; यहाँ तक कि राय साहब के बंगले पर आना भी छोड़ दिया। किंतु जब ज्ञानशंकर ने अपने विचारों को एक प्रसिद्ध अँगरेजी पत्रिका में प्रकाशित कराया तो सारे नैनीताल में हलचल मच गयी। जिसके मस्तिष्क से ऐसे उत्कृष्ट भाव प्रकट हो सकते थे, उसे झक्की या वक्की समझना असम्भव था। शैली ऐसी संजीव, चुटकियाँ ऐसी तीव्र, व्यग्य ऐसे मीठे और उक्तियों ऐसी मार्मिक थीं कि लोगों को उसकी चोटों में भी आनन्द आता था। नैनीताल का एक वृहत् चित्र था। चित्रकार में प्रत्येक चित्र के मुख पर चसका व्यक्तित्व ऐसी कुशलता से अंकित कर दिया था कि लोग मन ही मन कट कर रह जाते थे। लेख में ऐसे कटाक्ष थे कि उसके कितने ही वाक्य लोगों की जबान पर चढ़ गये।

ज्ञानशंकर को शंका थी कि कहीं यह लेख छपते ही समस्त नैनीताल उनके सिर हो जायगा, किन्तु यह शंका निस्सार सिद्ध हुई। जहाँ लोग उनका निरादर और अपमान करते थे, वहीं अब उनका आदर और मान करने लगे। एक-एक करके लोगों ने उनके पास आ कर अपने अविनय की क्षमा माँगी। सब के सब एक दूसरे पर की गयी चोट का आनन्द उठाते थे। डाक्टर चन्द्रशेखर और राजा इन्द्रकुमार में बड़ी घनिष्ठता थी, किन्तु राजा साहब पर दो-मुहें साँप की फबती डाक्टर महोदय को लोट-पोट कर देती थी। राजा साहब भी डाक्टर महाशय की प्रौढ़ा से उपमा पर मुग्ध हो जाते थे। उनकी घनिष्ठता इस द्वेषमय आनन्द मे बाधक न होती थी। यह चोटे और चुटकिय सर्वथा निष्फल न हुई। सैर-तमाशों में लोगों का उत्साह कुछ कम हो गया। अगर अन्त करण से नहीं तो केवल ज्ञानशंकर को खुश करने के लिए लोग उनसे सार्वजनिक प्रस्तावों में सम्मति लेने लगे। ज्ञानशंकर का साहस और भी बढ़ा। यह खुल्लम खुल्ला लोगों को फटकारें सुनाने लगे। निन्दक से उपदेशक बन बैठे। उनमें आत्मगौरव को