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प्रेमाश्रम

भाव उदय हो गया। अनुभव हुआ कि इन बड़े-बड़े उपाधिधारियों और अधिकारियों पर कितनी सुगमता से प्रभुत्व जमाया जा सकता है। केवल एक लेख ने उनकी धाक बिठा दी। सेवा और दया के जो पवित्र भाव उन्होंने चित्रित किये थे, उनका स्वंय उनकी आत्मा पर भी असर हुआ। पर शौक! इस अवस्था का शीघ्र ही अन्त हो गया। क्वार का आरंम्भ होते ही नैनीताल से डेरे कूच होने लगे और आधे क्वार तक सब बस्ती उजाड़ हो गयी। ज्ञानशंकर फिर उसी कुटिल स्वार्थ की उपासना करने लगे। उनका हृदय दिनों-दिन कृपण होने लगा। नैनीताल में भी वह मन ही मन राय साहब की फजूलखर्चयों पर कुड़बुड़ाया करते थे। लखनऊ आ कर उनकी संकीर्णता शब्दों में व्यक्त होने लगी। जुलाहे का क्रोध दाढी पर उतरता। कभी मुख्तार से, कभी मुहरिर से, कभी नौकरों से उलझ पड़ते। तुम लोग रियासत लूटने पर तुले हुए हो, जैसे मालिक वैसे नौकर, सभी की आँखों में सरसों फूली हुई हैं। मुफ्त का माल उड़ाते क्या लगता है? जब पसीना गार कर कमाते तो खर्च करते अखर होती। राय साहब रामलीलासभा के प्रधान थे। इस अवसर पर हजारो रुपये खर्च करते, नौकरों को नयी-नयी वरदियाँ मिलती, रईसों की दावत की जाती, राजगद्दी के दिन भौज किया जाता। ज्ञानशंकर यह धन का अपव्यय देख कर जलते रहते थे। दीपमालिका के उत्सव की तैयारियाँ देख कर वह ऐसे हताश हुए कि एक सप्ताह के लिए इलाके की सैर करने चले गये।

दिसम्बर का महीना था और क्रिसमस के दिन। राय साहब अंगरेज अधिकारियों को डालियाँ देने की तैयारियों में तल्लीन हो रहे थे। ज्ञानशंकर उन्हें डालियाँ सजाते देख कर इस तरह मुँह बनाते, मानो वह कोई महा घृणित काम कर रहे हैं। कभी-कभी दबी जवान से उनकी चुटकी भी ले लेते। उन्हें छेड़ कर तर्क वितर्क करना चाहते। राय साहब पर इन भावों का जरा भी असर न होता। वह ज्ञानशंकर की मनोवृत्तियों से परिचित जान पड़ते थे। शायद उन्हें जलाने के लिए ही वह इस समय इतने उत्साहशील हो गये थे। यह चिन्ता ज्ञानशंकर की नींद हराम करने के लिए काफी थी। उस पर जब उन्हें विश्वस्त सूत्र से मालूम हुआ कि राय साहब पर कई लाख का कर्ज है तो वह नैराश्य से विह्वल हो गये। एक उद्विग्न दशा में विद्या के पास आ कर बोले, मालूम होता है यह मरते दम तक कौड़ी कफन को न छोड़ेंगे। मैं आज ही इस विषय में इनसे साफ-साफ बातें करूंगा और कह दूंगा कि यदि आप अपना हाथ न रोकेंगे तो मुझसे भी जो कुछ नन पड़ेगा कर डालूंगा।

विद्या-उनकी जायदाद है, तुम्हें रोक-टोक करने का क्या अधिकार है। कितना ही उड़ायेंगे तब भी हमारे खाने भर को बचा ही रहेगा। भाग्य में जितना बदा है, उससे अधिक थोड़ें ही मिलेगा।

ज्ञान---भाग्य के भरोसे बैठ कर अपनी तबाही तो नहीं देखी जाती।

विद्या--भैया जीते होते तब?

ज्ञान--तब दूसरी बात थी। मेरा इस जायदाद से कोई सम्बन्ध न रहता। मुझको उसके बनने-बिगड़ने की चिंता न रहती। किसी चीज पर अपनेपन की छाप लगते