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गृह-दाह

साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दो और अप्रिय बात न निकलती। एक क्षण के लिये उसकी सोई हुई आत्मा जाग उठती।

एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने पूछा―तुम आजकल पढ़ने क्यो नहीं जाते? क्या सोच रक्खा है कि मैंने तुम्हारी जिदगी-भर का ठेका ले रक्खा है?

सत्य॰―मेरे ऊपर जुर्माने और फीस के कई रुपए हो गए हैं। जाता हूँ, तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।

देव॰―फीस क्यो बाकी है? तुम तो महीने-महीने ले लिया करते हो न?

सत्य॰―आए दिन चंदे लगा करते हैं। फीस के रुपए चंदे में दे दिए।

देव॰―और जुर्माना क्यो हुआ?

सत्य॰―फीस न देने के कारण।

देव॰―तुमने चंदा क्यो दिया?

सत्य॰―ज्ञानू ने चंदा दिया, तो मैंने भी दिया।

देव॰―तुम ज्ञानू से जलते हो?

सत्य॰―मैं ज्ञानू से क्यो जलने लगा। यहाँ हम और वह दो हैं, बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे पास कुछ नहीं है।

देव॰―क्यों, यह कहते शर्म आती है?

सत्य॰―जी हाँ, आपकी बदनामी होगी।