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प्रेम-पंचमी

देव॰―अच्छा, तो आप मेरी मान-रक्षा करते हैं! यह क्यों नहीं कहते कि पढ़ना अब मँजूर नही। मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हे एक-एक क्लास में तीन-तीन साल पढ़ाऊँ; ऊपर से तुम्हारे खर्च के लिये भी प्रतिमास कुछ दूँँ। ज्ञान बाबू तुमसे कितना छोटा है, लेकिन तुमसे एक ही दफा नीचे है। तुम इस साल ज़रूर ही फेल होओगे; वह ज़रूर ही पास होगा। अगले साल तुम्हारे साथ हो जायगा। तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी न।

सत्य॰―विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है।

देव॰―तुम्हारे भाग्य में क्या है?

सत्य॰―भीख माँँगना।

देव॰―तो फिर भीख ही माँँगो। मेरे घर से निकल जाओ।

देवप्रिया भी आ गई। बोली―शरमाता तो नहीं, और बातों का जवाब देता है।

सत्य॰―जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है, वे ही बच- पन में अनाथ हो जाते हैं।

देवप्रिया―ये जली-कटी बाते अब मुझसे न सही जायँगी। मैं ख़ून का घूँट पी-पीकर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश―बेहया है। कल से इसका नाम कटवा दूँँगा। भीख माँँगनी है, तो भीख ही माँगो।

( ५ )

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी