नीचे के दरजों में थे। एक लड़की का विवाह भी एक धन- संपन्न कुल में किया। विदित यही होता था कि उनका जीवन बड़ा ही सुखमय है। मगर उनकी आर्थिक दशा अब भी संतोष- जनक न थी। खर्च आमदनी से बढ़ा हुआ था। घर की कई हज़ार की जायदाद हाथ से निकल गई, इस पर भी बैंक का कुछ-न-कुछ देना सिर पर सवार रहता था। बाज़ार में भी उनकी साख न थी। कभी-कभी तो यहाँ तक नौबत आ जाती कि उन्हें बाज़ार का रास्ता छोड़ना पड़ता। अब वह अक्सर अपनी युवा- वस्था को अदूरदर्शिता पर अफसोस करते थे। जातीय सेवा का भाव अब भी उनके हृदय में तरंगे मारता था; लेकिन काम तो वह करते थे, और यश वकीलो और सेठो के हिस्सों में आ जाता था। उनकी गिनती अभी तक छुटभैयों में थी। यद्यपिसारा नगर जानता था कि यहाँ के सार्वजनिक जीवन के प्राण वही हैं, पर उनका यथार्थ सम्मान न होता था। इन्हीं कारणों से ईश्वरचंद्र को अब संपादन-कार्य से अरुचि होती थी। दिनादिन उनका उत्साह क्षीण होता जाता था, लेकिन इस जाल से निकलने का कोई उपाय न सूझता था। उनकी रचना में अब सजीवतान न थी, न लेखनी में शक्ति। उनके पत्र और पत्रिका दोनो ही से उदासीनता का भाव झलकता था। उन्होंने सारा भार सहायको पर छोड़ दिया था, ख़ूद बहुत कम काम करते थे। हाँ, दोनो पत्रो की जड़ जम चुकी थी, इसलिये ग्राहक-संख्या कम न होने पाती थी। वे अपने नाम पर चलते थे।
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