पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१०८

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भारतकी स्वाधीनता और पराधीनता ।
 

४—पहले, स्वतन्त्रता और परतन्त्रताको लीजिए । इसके अन्तर्गत दो तत्त्व हैं। एक यह कि राजाके विदेशमें रहनेके कारण भारतवर्षके सुशासनमें विघ्न होता है या नहीं ? स्वदेशके मङ्गलके लिए शासनकर्ता लोग इस देशको हानि पहुंचाते हैं या नहीं ? स्वीकार करना होगा कि उक्त कारणसे सुशासनमें विघ्न भी होता है और भारतकी हानि भी होती है।

किन्तु पूर्व समयमें राजाके चरित्रके दोषसे जो अनिष्ट होते थे, वे आधुनिक भारतमें संघटित नहीं होते। अतएव इस सम्बन्धमें प्राचीन और आधुनिक भारतवर्षमें विशेष तारतम्य नहीं देख पड़ता।

५—दूसरे, स्वाधीनता और पराधीनताको लीजिए। आधुनिक भारतवर्ष यदि प्रभुजातिकी प्रधानतासे पीड़ित है, तो प्राचीन भारतमें भी ब्राह्मणोंके प्राधान्यकी पीड़ा कम न थी । अधिकांश प्रजाके लिए इस विषयमें भी कुछ अधिक इतर-विशेष नहीं है । हाँ, प्राचीन समयमें ब्राह्मणों और क्षत्रियोंको कुछ सुख था।

६—आधुनिक भारतमें कार्यगत जातीय-शिक्षाका लोप हो रहा है। किन्तु विज्ञान और साहित्यकी चर्चाकी अपूर्व स्फूर्ति हो रही है।

इसपर बहुतसे पाठक हमपर बिगड़ कर कहेंगे कि तो फिर क्या स्वाधीनता और पराधीनता तुल्य है ? तो फिर पृथ्वीकी सब जातियाँ स्वाधीनताके लिए प्राणपण किये क्यों बैठी हैं ? जो लोग यह कहेंगे उनसे हमारा विनीत निवे-दन यह है कि हम उस तत्त्वकी मीमांसा करने नहीं बैठे हैं । हम पराधीन जाति हैं —बहुत समय तक पराधीन ही रहेंगे । इसके विचारसे हमें कुछ प्रयोजन नहीं है । हमारा यह प्रबन्ध लिखनेका उद्देश्य केवल यही है कि प्राचीन भारतवर्षकी स्वाधीनताके कारण उस समयके भारतवासी आधुनिक भारतकी प्रजाकी अपेक्षा सुखी थे या नहीं। हमने इस प्रबन्धमें यह निर्णय किया है कि आधुनिक भारतमें ब्राह्मण-क्षत्रिय अर्थात् उच्च श्रेणीके लोगोंकी अवनति हुई है और शूद्रोंकी अर्थात् साधारण प्रजाकी कुछ उन्नति हुई है।

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