पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/११०

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बाहुबल और वाक्यबल ।
 

मूलच्छेद कभी नहीं हो सकता। किन्तु और भी कुछ सामाजिक दुःख ऐसे हैं जो समाजके नित्य फल नहीं हैं, वे निवृत्त किये जा सकते हैं, और उन्हें दूर करना सामाजिक उन्नतिका प्रधान अंश है। समाजके आदमी उन्हीं सामाजिक दुःखोंकी जड़ उखाड़नेके लिए बहुत दिनोंसे चेष्टा करते आ रहे हैं । उस चेष्टाका इतिहास सभ्यताके इतिहासका प्रधान अंश तथा समाज- नीति और राजनीति, इन दो शास्त्रोंका एकमात्र उद्देश्य है।

इन दो प्रकारके सामाजिक दुःखोंको मैं कुछ उदाहरणोंके द्वारा समझानेकी चेष्टा करूँगा । स्वाधीनताकी हानि एक प्रकारका दुःख है, इसमें सन्देह नहीं। समाजमें रहनेपर अवश्य ही स्वाधीनताकी कुछ हानि उठानी ही पड़ेगी। जितने मनुष्य समाजमें हैं, मैं, समाजमें रह कर, सबके कुछ कुछ अधीन हूँ। समाज-संचालकोंका तो मुझपर पूर्ण अधिकार है। अतएव स्वाधीनताकी हानि यह एक समाजका नित्य दुःख है।

स्वानुवर्तिता एक परमसुख है और उसकी क्षति परमदुःख है । जगदी- श्वरने हमको जो शारीरिक और मानसिक वृत्तियाँ दी हैं उनकी स्फूर्तिसे ही हमको मानसिक और शारीरिक सुख मिलता है। यदि उन्होंने हमको आँखें दी हैं तो देखनेकी सब चीजोंके देखनेसे ही हमको आँखोंका सुख मिल सकता है । आँखें पाकर अगर हम उन्हें सदा बंद ही किये रहें तो आँखोंके सम्बन्धमें हम सदा दुखिया रहे। अगर हम कभी कभी या किसी किसी वस्तुके संबंधमें आँखें बंद करनेके लिए बाध्य हुए, तो हम आँखके सम्बन्धमें कुछ अंशमें दुखी ठहरे। हमको बुद्धि मिली है। बुद्धिकी स्फूर्ति ही हमारा सुख है । अगर हमें अपनी बुद्धिको सदा परिमार्जित करने और अपनी इच्छाके अनुसार चलानेका अवसर न मिला, तो हम उतना ही बुद्धिके सम्बन्धमें दुखिया हुए। अगर हमें किसी विशेष बातमें बुद्धिसे काम न लेनेके लिए बाध्य बना दिया गया, तो हम उतना ही बुद्धिके संबंधमें दुखी ठहरे।

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सिवा और कुछ नहीं—अतएव वहाँ प्रकाश है, छाया नहीं है। वैसे ही हम अपने मनमें ऐसे एक समाजकी भी कल्पना कर सकते हैं, जिसमें सुख है, दुःख नहीं है। किन्तु वह जगत् और समाज.दोनों ही केवल मनके लड्डू और अस्तित्वशून्य हैं।

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