पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१२४

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प्यारका अत्याचार।
 

प्रजा, प्रजापीड़क राजाको कभी गद्दीसे उतार देती है और कभी उसके प्राण ही ले लेती है। लोकपीड़क समाज त्याग किया जा सकता है। किन्तु धर्म और स्नेहके अत्याचारसे छुटकारा नहीं है। क्यों कि इनका विरोध करनेकी प्रवृत्ति ही नहीं होती। कभी कभी बकरीके बच्चेका सालन देखकर बैरागीबाबाकी लार टपक पड़ती है, किन्तु कभी वे गोस्वामीके मांसभोजनके सम्बन्धमें विचार करनेकी इच्छा ही नहीं करते कि वह उचित है या अनुचित । क्योंकि वे जानते हैं, इस लोकमें चाहे जितना कष्ट हो, पर परलोकमें तो गोलोक अवश्य ही मिलेगा।

मनुष्य जिन अत्याचारोंके अधीन है, उनकी जड़ मनुष्यका प्रयोजन है । जड़ पदार्थको अपने वशमें किये बिना मनुष्य-जीवनका निर्वाह नहीं हो सकता। इस लिए बाहुबलका प्रयोजन है। इसी कारण बाहुबलका अत्याचार भी है। बाहुबलका फल बढ़ानेके लिए समाजका प्रयोजन है। उसके साथ ही समाजका अत्याचार भी है । जैसे परस्पर समाजबन्धनमें बँधे बिना मनुष्य-जीवनका उद्देश्य सुसम्पन्न नहीं होता, वैसे ही परस्पर आन्तरिक बन्ध- नमें बँधे बिना मनुष्य-जीवनका अच्छी तरह निर्वाह नहीं होता। अतएव समाजका जैसा प्रयोजन है वैसा ही, बल्कि उससे भी अधिक, प्रणयका प्रयोजन है। बाहुबल या समाजका अत्याचार होनेके कारण जिस तरह बाहुबल या समाजको मनुष्य त्याज्य या अनादरकी चीज नहीं समझते, उसी प्रकार प्रणयका अत्याचार होनेके कारण वह भी त्याज्य या अनादरणीय नहीं हो सकता। किन्तु जैसे मनुष्य अत्याचारी बाहु- बल और समाजबलको परित्यक्त या अनाहत न करके धर्मके द्वारा उसे शान्त करनेकी चेष्टा करता है, वैसे ही प्रणयके अत्याचारको भी धर्मके द्वारा शान्त करनेका यत्न करना कर्तव्य है। धर्मका भी अत्याचार अवश्य है। धर्मका अत्याचार रोकनेके लिए अगर अन्य शक्तिका प्रयोग किया जायगा, तो उसका भी अत्याचार होगा। अत्याचारकी शक्ति स्वाभाविक है। यदि धर्मका अत्याचार शान्त कर सकनेवाली कोई शक्ति है, तो वह ज्ञान है। किन्तु ज्ञानका भी अत्याचार है। इसका उदाहरण हितवाद और प्रत्यक्ष- वाद नामके दो दर्शन हैं। इन दोनों के वेगसे हृदय-सागरका बहुतसा हिस्सा सूखे बालूके टापुओंका रूप धारण करता जा रहा है । जान पड़ता है,

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