पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१३८

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अनुकरण।
 

पर-वर्ती कार्य पूर्व-वर्ती कार्यका अनुकरण मात्र हुआ, तो चेष्टा किसी नई राह- पर नहीं जाती। यही कारण है कि उस कार्य में उन्नति नहीं होने पाती। तब फल यह होता है कि बहुत दिनों तक एक ही ढंग चला जाता है। इस बातको क्या शिल्प, साहित्य, विज्ञान;—और क्या सामाजिक कार्य या मान- सिक अभ्यास;—सबमें आप आजमाकर देख सकते हैं।

विचार करनेसे जान पड़ेगा कि मनुष्यकी दैहिक और मानसिक वृत्तियोंकी एक साथ ही यथोचित स्फूर्ति और उन्नति ही मनुष्य-देह धारण करनेका प्रधान उद्देश्य है। मगर जिससे उनमेंसे कुछ वृत्तियाँ अधिक पुष्ट हों, और कुछके प्रति अवज्ञा उत्पन्न हो, वह कार्य मनुष्यके लिए अवश्य ही अनि- टकारी है। मनुष्य अनेक हैं और एक मनुष्यके सुख भी अनेक हैं। उन सब सुखोंकी सिद्धिके लिए बहुत तरहके भिन्न भिन्न कार्योके करनेकी आवश्यकता है। वे भिन्न भिन्न प्रकारके कार्य भिन्न भिन्न प्रकृतिके लोगोंके बिना सुसम्पन्न नहीं हो सकते। एक श्रेणीके चरित्रवाला आदमी अनेक श्रेणीके अनेक कार्य नहीं कर सकता। अतएव संसारमें चरित्र-वैचित्र्य, कार्य-वैचित्र्य, और प्रवृत्ति- वैचित्र्यकी बड़ी जरूरत है। इसके सिवा समाजकी सर्वाङ्ग उन्नति नहीं हो सकती। इस वैचित्र्यकी उन्नतिमें ही समाजकी भलाई है। अनुकरण प्रवृ- त्तिका फल यही होता है कि अनुकरण करनेवालेके चरित्र, प्रवृत्ति और कार्य अनुकृतके ऐसे हो जाते हैं—अनुकरण करनेवाला दूसरे मार्गपर नहीं जा सकता लेकिन यह नियम विशेष कर प्रतिभाहीन लोगोंके लिए ही लागू है); और जब समाजके सभी लोग या अधिकांश लोग, अथवा काम करनेवाले लोग, एक ही आदर्शका अनुकरण करने लगते हैं तब यह वैचित्र्यकी हानि हो जाती है। मनुष्य-चरित्रका सम्पूर्ण विकास नहीं होता; सब प्रकारकी मानसिक वृत्तियोंमें सामञ्जस्य नहीं रहता; सब तरहके काम सुसम्पन्न नहीं होते; मनुष्यको सब प्रकारके सुख नसीब नहीं होते। मनुष्यत्व असम्पूर्ण रह जाता है, समाज अस- म्पूर्ण रह जाता है, मनुष्य-जीवन असम्पूर्ण रह जाता है।

हमारे इस सब कथनका सारांश यही है कि—

(१) सामाजिक सभ्यताकी उत्पत्ति दो तरहसे है—कोई समाज आपसे सभ्य होता है; और कोई समाज दूसरे समाजसे शिक्षा प्राप्त करता है।

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