पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१४

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बंकिम-निबन्धावली।

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धर्म्म और साहित्य

मैं 'प्रचार' (मासिकपत्र ) का एक लेखक हूँ। यह जानकर ‘प्रचार' के एक पाठक ने मुझसे कहा—प्रचार में इतने अधिक धर्मसम्बन्धी प्रबन्ध अच्छे नहीं लगते। जबतक दो-एक बातें हम लोगोंके कामकी न हों तबतक जी नहीं लग सकता।

मैंने कहा—क्यों, उपन्यासमें भी क्या तुम्हारा जी नहीं लगता ? उसकी तो प्रत्येक संख्यामें एक उपन्यास प्रकाशित होता है।

उन्होंने कहा—केवल वही एक न?

प्रचारके २४ पृष्ठ होते हैं। आठ पेजके लगभग उपन्यास होता है। वह भी पाठकोंके मनोविनोदके लिए काफी नहीं! आठ-नौ पेजोंके बाद दो- एक पृष्ठ कविता भी निकल जाती है। एक कोनेमें एक दो धर्मसम्बन्धी लेख भी पड़े रहते हैं। तथापि इस पाठकके लिए उतनी धर्मचर्चा भी रुचि-कर नहीं है। शायद कुछ और पाठक भी ऐसे निकलेंगे, जिन्हें धर्मचर्चा कड़वी लगती है। इस प्रबन्धका उद्देश्य केवल इसी प्रश्नपर विचार करना है कि धर्मचर्चा क्यों कड़वी लगती है, और उपन्यास आमोद-प्रमोद क्यों अधिक रुचते हैं ?

हमारी इच्छा यह है कि पाठकगण आप ही जरा सोचकर इन प्रश्नोंका उत्तर ठीक करें। स्वयं अपनी बुद्धिसे काम लेकर निश्चय करनेमें उनका जितना उपकार होगा, उतना उपकार किसीकी शिक्षासे नहीं हो सकता। इस विचारके काममें हम उन्हें सहायता अवश्य देंगे।