पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१४३

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बंकिम-निबन्धावली—
 

बाहुबलके अधीन होकर रहना पड़ता है। आत्मपक्षपाती पुरुषगण जहाँतक आत्मसुखका प्रयोजन है, वहाँतक स्त्रियोंकी उन्नतिपर ध्यान देते हैं—उससे अधिक रत्ती भर भी नहीं। यह बात अन्यान्य समाजोंकी अपेक्षा हमारे देशमें अधिक सत्य है। हम प्राचीन समयकी बात नहीं कहना चाहते। उस समय तो स्त्रियोंको सदा पुरुषके अधीन रहनेकी विधि थी। केवल अवस्थाविशेषके विना स्त्रियोंको धनका अधिकार न था। स्त्रीके धनाधिकारिणी होनेपर भी वह उस धन-सम्पत्तिको न दान कर सकती थी और न बेच सकती थी। उनके सती होनेकी चाल थी, बहत दिनोंसे विधवा-विवाहका निषेध प्रचलित था, विधवाओंके लिए कठिन नियम प्रचलित थे। उस समय स्त्री-पुरुषोंमें जो घोर वैषम्य था उसके इतने ही प्रमाण यथेष्ट हैं। उसके उपरान्त, मध्यकालमें भी स्त्रियोंकी अधिक अवनति देखी जाती है। मर्द प्रभु था, स्त्री दासी थी। वह जल भरती थी, भोजन बनाती थी, बर्तन माँजती थी, घर बुहारती थी, कूटना कूटती थी, पीसना पीसती थी। तनख्वाह पानेवाली दासीके लिए तो थोड़ी बहुत स्वाधीनता भी होती है, किन्तु औरत, लड़की और बहनको वह भी नहीं थी। आज कल पुरुषोंकी शिक्षाके कारण हो, या स्त्रियोंकी शिक्षाके कारण हो, या अँगरेजोंके दृष्टान्तसे हो, अवस्थामें परिवर्तन हो रहा है। किन्तु जिस तरहका परिवर्तन हो रहा है उसका सभी अंश क्या उन्नतिसूचक है ? देशके युवकोंकी जो हालत बदल रही है, उसका तो विशेष आन्दोलन सुन पड़ता है; किन्तु देशकी युवतियोंकी अवस्थाका जो परिवर्तन हो रहा है, वह क्या उन्नति है?

इस प्रश्नका उत्तर देनेके पहले यह स्मरण रखनेकी आवश्यकता है कि देशकी स्त्रियाँ पहले किस रूपमें थीं और अब उनका क्या रूप हो रहा है। प्राचीना स्त्रियोंके साथ नवीना स्त्रियोंकी तुलना आवश्यक जान पड़ती है। पहलेकी स्त्रियाँ लाखकी चूड़ियोंके जोड़े हाथों में पहनती थीं, शरीरपर लहँगा और दुपट्टा रहता था, कामके समय धोती पहने, हाथमें झाडू लिये घर बुहारती या रसोईके काममें लगी देख पड़ती थीं। उनकी माँगमें सेंदुरकी मोटी रेख, नाकमें नथ, दाँतोंमें मिस्सी और पीछे पर्वतकी चोटीके समान ऊँची चोटी देख पड़ती थी। हम स्वीकार करते हैं कि उस जमानेकी अधि-

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