पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१५४

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लोक-शिक्षा।
 
लोक-शिक्षा।

लोक-संख्याकी गणना करके जाना गया है कि भारतमें रहनेवाले हिन्दु. ओंकी संख्या ३३ करोडके लगभग है। शायद पृथ्वीपर ऐसा कोई काम ही सम्पन्न नहीं होता, जिसे इतने आदमी मिलकर न कर सकते हों। किन्तु हमारे द्वारा कोई भी काम सिद्ध नहीं होता। इसका कारण है । लोहेका औजार बननेपर उसके द्वारा पत्थर तक तोड़ा जा सकता है। किन्तु लोहेमात्रमें तो यह गुण नहीं है । लोहेको अनेक प्रकारकी सामग्रियोंसे प्रस्तुत, गठित और तेज करना पड़ता है, तब लोहा ईस्पात होकर काटता है। ऐसे ही मनुष्यको प्रस्तुत, उत्तेजित और शिक्षित करना पड़ता है, तब उसके द्वारा कार्य होता है। भारतके इन करोड़ों आदमियोंके द्वारा कोई कार्य न होनेका कारण यह है कि भारतमें लोक-शिक्षाका अभाव है। जो लोग भारतकी तरह तरहकी उन्नति करनेमें लगे हैं, वे लोक-शिक्षाकी बातपर ध्यान नहीं देते, अपनी अपनी विद्या-बुद्धि प्रकट करने में ही लगे रहते हैं। मामला कम आश्चर्यका नहीं है।

यह कभी संभव नहीं कि विद्यालयमें पुस्तकें पढ़ाकर, व्याकरण, साहित्य और ज्यामिति सिखाकर इन करोड़ों लोगोंको शिक्षा दी जा सके । यह शिक्षा ही नहीं है और उक्त उपायोंसे यथार्थ शिक्षाकी प्राप्ति असंभव है । सब चित्तवृत्तियोंकी प्रकृत अवस्था, अपने अपने कार्यमें निपुणता और कर्त्तव्य-कार्यमें उत्साह जिससे हो वही शिक्षा है। मेरा यही विश्वास है कि व्याकरण और ज्यामितिसे वह शिक्षा नहीं होती और बड़े बड़े सुशिक्षित-नामधारियोंसे लेकर साधारण पढ़े लिखे मनुष्यों तक किसी भी अँगरेजी-नवीसके मुखसे इस बारेमें कोई बात आज तक नहीं सुन पड़ी।

यूरोपमें इस प्रकारकी लोक-शिक्षा अनेक उपायोंसे हुआ करती है । प्रशिया आदि अनेक देशोंमें, सर्वसाधारणको इस प्रकारकी शिक्षा दी जाती है। इन देशोंमें अखबार लोक-शिक्षाका एक प्रधान उपाय हैं। अखबारोंसे लोक-

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