पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१५७

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बंकिम-निबन्धावली—
 

और लोक-शिक्षाप्रचारिणी कथाके प्रचारमें हानि, उन अल्पशिक्षित, स्वधर्म- भ्रष्ट, कदाचार, दुराशय, असार, बात करनेके अयोग्य लोगोंके दोषसे अब कथाकी प्रथा उठ जानेमें अधिक विलम्ब नहीं है। अँगरेजी-शिक्षाके गुणसे भारतमें क्रमशः लोक-शिक्षाका उपाय लुप्त ही होता जा रहा है।

अँगरेजी शिक्षाको मैं इस लिए दोष दे रहा हूँ कि इससे ऊपर लिखे दोषके अलावा एक दोप यह हो जाता है कि शिक्षित और अशिक्षितमें सहानुभूति नहीं रहती । अँगरेजीमें ही बातचीत करनेकी सनक रखनेवाले बाबू लोग अशिक्षितोंके हृदयको नहीं समझते । शिक्षित लोग अशिक्षितोंके ऊपर दृष्टि ही नहीं डालते। कल्लू किसान किसानीके कामोंमें जुटकर जान दे, हमें उसका फल भोगनेसे मतलब । कल्लूके दिन किस तरह बीतते हैं, उसे क्या दुख और क्या सुख है, उसपर हमारे यहाँके शिक्षित बाबूलोग रत्तीभर ध्यान नहीं देते। शिक्षितोंके लंबे चौड़े व्याख्यान पढ़कर विलायतके बड़े बड़े अँगरेज मुग्ध और चकित हो भी गये, तो उससे फल कुछ नहीं। शिक्षितोंके मनकी बात, उनका वक्तव्य विदेशी भापामें होनेके कारण अगर कल्लू किसानकी मण्डली—जिसकी संख्या फी-सदी नव्वेसे भी अधिक है— कुछ भी न समझ सकी तो वह निष्फल है। कोरे यशसे क्या होगा? अँग- रेजोंके मुग्ध और चकित होनेसे क्या होगा ? जब तक देशीभाषामें अपना वक्तव्य कल्लूकी मण्डलीको सुनाकर उसे हम 'लोकमत' का रूप न देंगे, तब तक उसका पूरा असर नहीं पड़ सकता । करोड़ों अशिक्षितोंके मूक, क्रन्दनसे आकाश फटा जाता है। पर वे क्या करें ? उनको शिक्षा नहीं मिली है—उनके पास अपने भाव प्रकट करनेकी भाषा नहीं है। सुशिक्षित लोग उनसे मिलकर, देशी भाषामें अपना वक्तव्य प्रकटकर उन्हें शिक्षित नहीं बनाते।

सुशिक्षित लोग जो समझते हैं, अशिक्षितोंको एकत्र करके अपनी भाषामें वह कुछ कुछ समझा देनेसे लोग सहजमें शिक्षित हो सकते हैं। लोक-शिक्षाका यह सहज सुन्दर उपाय है। यह बात भारतमें सर्वत्र प्रचारित होनी चाहिए। इसके लिए सुशिक्षितोंको अशिक्षितोंसे हेलमेल बढ़ाना होगा। सुशिक्षित और अशिक्षितोंमें सहानुभूतिका भाव होना

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