पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बंकिम-निबन्धावली—
 

कार हुआ करता है । श्रमजीवी साधारण दरिद्र लोगोंका बाहुबल ही देशका बाहुबल है । बहुत लोग बिगड़कर कहेंगे कि अपना यह कठिन मन्तव्य रहने दो।

ये बातें तो हमने अक्सर सुनी हैं । क्यों, अगर देशमें खाने भरको अन्न नहीं होता तो यूरोपके भिन्न भिन्न देशोंमें इतने चाँवल और गेहूँ यहाँसे कैसे भेजे जाते हैं ? इस संप्रदायके लोग यह नहीं समझते कि देशमें यथेष्ट सामग्री न रहनेपर भी वह विदेश भेजी जा सकती है। जो अधिक दाम देगा, उसके हाथ चीज बिकेगी।

इस देशमें अगर कोई चीज यथेष्ट होती है तो वह चाँवल है। चाँवलके बिना आहार न करनेका अवसर जिनको दुर्भाग्यवश प्राप्त होता हो, उन लोगोंकी संख्या इस देशमें बहुत ही कम है। बंगालके अधिकांश लोगोंको, और चाहे कुछ नसीब न हो, लेकिन ससमय होनेपर, चाँवलकी कमी नहीं रहती। पेटभर भात प्रायः हरएक बंगाली पा जाता है। किन्तु पेटभर भात खा लेनेसे ही आहारकी पूर्ति नहीं हो सकती । केवल भात खाकर प्राणरक्षा मात्र की जा सकती है—उसके शरीरकी पुष्टि नहीं हो सकती । चाँवलमें बलकारक सार पदार्थ सौ भागमें सात भाग मात्र है। चर्बी, जो शरीरकी पुष्टिके लिए अत्यन्त प्रयोजनीय है, चाँवलमें बिलकुल नहीं है।

केवल भात खानेवाले लोग अगर कम नहीं हैं तो अधिक भी नहीं हैं। बंगालके अधिकांश लोग भातके साथ जरा दालका पानी, एकआध मछलीका टुकड़ा और साग आलू या कच्चे केलेकी तर्कारी मिलाकर खानेको पाते हैं, तो उसे अच्छी तरह भोजन करना समझ लेते हैं। इस भोजनमें प्रायः पौने सोलह आने एक पाई भर भात दाल और दो पाई भर सालन रहता है। ऐसे भोजनको एक प्रकारसे 'सूखी रोटी खाना' ही कह सकते हैं । बंगालके चौदह आने भर लोग इसी तरहका आहार करते हैं। किसी तरहकी बाधा या विन्न न उठ खड़ा हो, तो इतनेसे भी जीवनरक्षा हो सकती है, और होती ही है । किन्तु ऐसे शरीरमें रोग बहुत सहजमें अपना घर बना लेते हैं ( मलेरिया ज्वर इस बातका साक्षी है ) और ऐसे शरीरमें बल नहीं रहता। इसी लिए बंगालियोंके बाहुबल नहीं है।

१४६