पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१६३

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बंकिम-निबन्धावली—
 

है। घरमें खानेको हो चाहे न हो, लड़केका ब्याह पहले कर देंगे। केवल कुछ दाल और मोटा भात खाकर, सात पुरखोंसे, जली लकड़ीका ऐसा आकार धारण किये हैं—ज्वर और पिलहीसे परेशान हैं—तो भी वही कुत्सित आहार खानेके लिए, अनाहारका भाग बँटानेके लिए, ज्वर और पिलही- रोगका विस्तार बढ़ानेके लिए, गाँठके रुपये खर्च करके पराई लड़की अपने घर लानी ही होगी। मनुष्यजन्ममें यही उनके लिए सुख है। जो बंगाली होकर लड़केका ब्याह न कर सका—उस बंगालीका जन्म ही वृथा है। यह विचार कर देखनेकी कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती कि ब्याहके बाद लड़का बेचारा अपनी स्त्रीको खिला-पिला सकेगा या नहीं। इधर स्कूल छोड़ते छोड़ते ही लड़का एक छोटीसी बच्चोंकी पल्टनका बाप बन बैठता है। उसकी रसद जुटाने में ही बाप-दादेका नाकमें दम हो जाता है। गरीब विवाहित- युवक तब पोथी-पत्रा बाँधकर उम्मेदवारीमें लग जाता है। हाथ जोड़कर अँगरेजोंके द्वार द्वारपर हाय नौकरी, हाय नौकरी, करता फिरता है। शायद वह लड़का एक आदमी ऐसा आदमी हो सकता। शायद उस समय अपनी राह पहचानकर जीवन-क्षेत्रमें प्रवेश कर सकनेसे वह अपने जीवनको सार्थक कर सकता । किन्तु राह पहचाननेके पहले ही वह आशा जाती रही- उम्मेदवारीकी यन्त्रणा और नौकरीके निष्पेषणसे—गृहस्थी चलानेके कष्टोंसे- उसका हृदय और शरीर विकल हो गया। ब्याह हो गया है, लड़के- वाले हो गये हैं। अब मार्ग खोजनेका अवसर नहीं है—इस समय वही एक उम्मेदवारीका मार्ग खुला हुआ है और उसके द्वारा लोकोपकार होनेकी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि अपनी स्त्री और बालबच्चोंका उपकार करनेसे ही फुरसत नहीं मिलती। वे ही रात-दिन 'दो, दो' की धुन लगाये रहते हैं। देशका हित करनेकी क्षमता नहीं रहती। स्त्री-पुत्रके हितके लिए ही सर्वस्व अर्पण कर देना पड़ता है। लिखने-पढ़ने और धर्म-चिन्ताके साथ कोई संबंध नहीं रहता । लड़केको दुलराने और खिलानेमें ही समय बीत जाता है। जो रुपया वह पेट्रियटिक एसोसियेशनको चंदेमें दे सकता, उससे उसका लड़का अपनी स्त्रीको गहने बनवा देगा। इस पर भी बंगालके रामधन अगर बचपनमें लड़केका ब्याह नहीं कर सकते, तो उससे

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