पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१६६

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वृष्टि ।
 

कालाग्नि विद्युत् तब दम दम भर पर चमकने लगती है। मेरी निःश्वाससे चराचर जगत् उड़ने लगता है। मेरे शब्दसे ब्रह्माण्ड काँप उठता है।

साथ ही मैं मनोरम भी कैसा हूँ ! जब पश्चिमके आकाश में, सन्ध्याके समय, अरुणवर्ण सूर्यकी गोदमें खेलकर में सुनहरी लहरोंके ऊपर लहरें फैलाता हूँ, तब कौन ऐसा है जो मेरी उस क्रीड़ा और रंगको देखकर मुग्ध न हो जाता हो? चाँदनी रातको आकाशमें मन्द पवनकी सवारीपर चढ़कर कैसी मनोहरमूर्ति धारण करके मैं विचरता हूँ । सुनो पृथ्वीपरके रहनेवालो, मैं बहुत सुन्दर हूँ, तुम मुझको सुन्दर कहना ।

और एक बात है। वह कह कर मैं अब बरसने जाता हूँ। पृथ्वीतलपर एक बहुत गुणोंसे सम्पन्न कामिनी है, उसन मेरे मनको हर लिया है। वह पर्वतोंकी कन्दरामें रहती है, उसका नाम प्रतिध्वनि है। मेरी आवाज सुनते ही वह आकर मुझसे बातचीत करने लगती है। जान पड़ता है, वह मुझे प्यार करती है। मैं भी उसके आलापसे मुग्ध हो रहा हूँ। तुममेंसे कोई सम्बन्ध ठीक करके उसके साथ मेरा ब्याह करा दे सकता है ?

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वृष्टि।

लो नीचे उतरें, असाढ़ आ गया, चलो नीचे उतरें। हम छोटी छोटी 'वर्षाकी बूंदें हैं। अकेले एकजनी तो जूहीकी कलीका मुँह भी नहीं धो सकती—मल्लिकाके छोटेसे हृदयको भी नहीं भर सकती। किन्तु हम हजारों, लाखों, कराड़ों हैं। चाहे तो पृथ्वीको बोर दें। छोटा या क्षुद्र कौन है ? देखो, जो अकेला है वही क्षुद्र है—वही सामान्य है। जिसमें एका नहीं है वही तुच्छ है। देखो बूंदो, कोई अकेले नीचे न उतरना—आधी ही राहमें इस प्रचण्ड सूर्यकी किरणोंसे सूख जाओगी—चलो, हजारों, लाखों, करोड़ों, अर्बुदों बूंदें नीचे उतरकर सूखी हुई पृथ्वीको भर दें।

पृथ्वीको डुबा देंगी। पर्वतकी चोटीपर चढ़कर उसकी छातीपर पैर रखकर पृथ्वीपर उतरना होगा झरनेके मार्गमें मोतीका आकार धारण करके निक- लेंगी। नदियोंके शून्य हृदयको परिपूर्ण करके, उन्हें रूपका वस्त्र पहनाकर,

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