पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१७१

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बंकिम-निबन्धावली—
 

आओ नवीन नील मेघमाला देखकर इस अनन्त असंख्य विश्व-ब्रह्माण्डकी कराल छायाका अनुभव करें—मेघगर्जनको सुनकर सर्वध्वंसकारी कालके अविश्रान्त गर्जनका स्मरण करें । बिजलीकी चमकको कालका कुटिल कटाक्ष समझें । समझें कि यह संसार बिल्कुल ही क्षणस्थायी है, तुम भी क्षणस्थायी हो और मैं भी क्षणस्थायी हूँ । रोनेकी कोई बात नहीं है, वर्षा के लिए ही हम और तुम भेजे गये थे। आओ चुपचाप जलते जलते—अनेक ज्वालाओंमें जलते जलते–सब सहें।

नहीं तो, आओ, मरें। तुम दीपकके प्रकाशकी प्रदक्षिणा करते हुए जल मरो, और मैं आशारूप उज्ज्वल महादीपकके चारों ओर चक्कर लगा लगाकर जल मरूँ। दीपकके प्रकाशमें तुम्हारे लिए क्या मोहिनी है सो तो मैं नहीं जानता, किन्तु आशाके प्रकाशमें मेरे लिए जो मोहिनी है उसे मैं जानता हूँ। इस प्रकाशमें न जाने कितनी बार मैं फाँदा, कितनी बार जला, किन्तु मरा नहीं। यह मोहिनी क्या है सो मैं जानता हूँ। बड़ी साध थी कि ज्योतिको प्राप्त होकर इस संसारमें प्रकाश फैलावेंगे; किन्तु हाय ! हम जुगुनू हैं। हमारे इस प्रकाशसे कुछ भी प्रकाशित न होगा। जाने दो, कुछ काम नहीं है। तुम इस बकुल-कुञ्ज-किशलयके अन्धकारमें अपना क्षुद्र प्रकाश बुझा दो, और मैं भी जलमें या स्थलमें, रोगमें या दुःखमें, इस क्षुद्र प्राण-दीपकको बुझा हूँ।

—मनुष्य-खद्योत।
 
पुष्प-नाटक।

जूही—आओ आओ प्राणनाथ, आओ, मेरे हृदयके भीतर आओ, मेरा हृदय भर जाय। कबसे तुम्हारी आशामें मुंह उठाये बैठी हूँ— यह क्या तुम नहीं जानते? मैं जब कलिका—बालिका—थी, तब यह बड़ा भारी अग्निचक्र—यह त्रिभुवनको सुखानेवाला महापाप—पूर्वके आकाश में

आया था। उस समय इसकी ऐसी जगतको जलानेवाली विकराल मूर्ति भी न थी। उस समय इसके तेजमें इतनी ज्वाला भी न थी। हाय! उस सम-

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