पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१७४

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पुष्प-नाटक।
 

हैं। नहीं तो तुम्हारा यह रूप भी न रहता, यह महक़ भी न रहती और यह गर्व भी न रहता । पापिन, तू अपने बापके घरानेके बैरी उसी अग्नि- पिण्ड ( सूर्य ) की अनुरागिणी है ?

जूही—छि ! प्राणनाथ ! उस औरतके मुँह लगना तुम्हें नहीं सोहता। वह तो सबेरेसे मुँह खोले उसी अग्निमय नायकके मुंहकी ओर ताका करती है। जिधर वह जाता है उधर ही इसका मुँह रहता है। न जाने कितने भौंरे और ममाखियाँ आती जाती हैं, तब भी इसे संकोच नहीं होता। ऐसी बेहया, पानीमें बहनेवाली, भौंरोंसे मेल रखनेवाली, कँटीली औरतसे बात करना ही ठीक नहीं।

विष्णुकान्ता—क्यों बहन जूही, भौरों और ममाखियोंका आना-जाना घर घर नहीं है?

जूही—अपने घरकी बात कहो दीदी, मैं तो अभी खिली हूँ। अभीतक मैं भौंरों और ममाखियोंका उपद्रव जानती ही नहीं।

बिन्दु—तुम्हीं क्यों ऐसे लोगोंसे बातचीत करती हो ? जो खुद कलं- किनी (काली) है, वह तुम्हारी ऐसी अमल-धवल शोभा और ऐसी वा- सको कैसे दख सकती है?

कमलिनी—भलारे पानीके किनके ! भला! खूब लेक्चर दे रहा है। वह दखं वायु आ रहा है !

जूही—सर्वनाश! क्या कहा, वायु आ रहा है?

बिन्दु—हाँ, अब मैं नहीं ठहर सकता।

जूही—ठहरो न!

बिन्दु—ठहर न सकूँगा। वायु मुझे गिरा देगा—मैं उससे पेश नहीं पा सकता।

जूही—जरा और ठहरो न।

[वायुका प्रवेश।]

वायु—(बिन्दुसे) उतर।

बिन्दु—क्यों महाशय?

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बं. नि.—११