पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१७८

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सांख्यदर्शन।
 

सांख्य दर्शनमें है। शायद इसी कारण भारतमें वैराग्यकी जितनी प्रबलता है, उतनी और किसी भी देशमें नहीं है। वर्तमान हिन्दू-चरित्र इसी वैराग्य- प्रबलताका फल है। विदेशी लोग जिस कार्यपरतन्त्रताका अभाव हम लोगोंका प्रधान लक्षण निर्देश करते हैं, वह इस वैराग्यका एक साधारण परिणाम है और जो अदृष्टवादिता हम लोगोंका दूसरा प्रधान लक्षण है, वह सांख्यजात वैराग्यका केवल दूसरा रूप है।

बौद्धधर्म लगभग एक हजार वर्ष तक भारतका प्रधान धर्म रहा है। भारतके इतिहासमें जो समय सर्वापेक्षा विचित्र और सौष्ठवलक्षणयुक्त समझा जाता है, बौद्धधर्म उसी समय इस भारत भूमिका प्रधान धर्म था। भारतसे दूरी- कृत होकर वह सिंहल, नेपाल, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, श्याम आदि देशोंमें अब भी व्याप्त है। बौद्धधर्मका आदि यही सांख्य दर्शन है। इस धर्ममें वेदोंकी अवज्ञा, निर्वाण और निरीश्वरता ये तीन बातें नूतन हैं और ये तीन ही इस धर्मका कलेवर है। लेखकका 'कलकत्ता रिव्यू' (संख्या १०६) में जो 'बौद्धधर्म और सांख्यदर्शन' शीर्षक निबन्ध प्रकाशित हुआ है, उसमें सिद्ध किया गया है कि इन तीनों बातोंका मूल सांख्यदर्शन है। निर्वाण सांख्यकी मुक्तिका परिणाम मात्र है और यद्यपि प्रकटरूपमें सांख्यदर्शनने वेदकी अवज्ञा कहीं भी नहीं की है, बल्कि उसमें वैदिकताका आडम्बर ही अधिक है। परन्तु वास्तवमें सांख्यप्रवचनकारने वेदकी दुहाई देते हुए ही वेदका मूलोच्छेद किया है।

कहा जाता है कि पृथिवीमें जितनी संख्या बौद्धोंकी है, उतनी अन्य किसी भी धर्मके अनुयायियोंकी नहीं है—ईसाई तक उनके बाद हैं। अतएव यदि कोई पूछे कि पृथिवीपर अवतीर्ण हुए मनुष्योंमेंसे किसने सबसे अधिक लोगोंके जीवनपर प्रभुत्व किया है, तो हम पहले शाक्यसिंहका और उसके बाद ईसाका नाम लेंगे । परन्तु शाक्य सिंह ( बुद्धदेव ) के साथ साथ हमें कपिलका भी नाम लेना चाहिए।

यह बात खूब स्पष्टताके साथ कही जा सकती है कि पृथिवीपर अबतक जितने दर्शनशास्त्र अवतीर्ण हुए हैं, उनमें सांख्यके समान बहुफलोत्पादक कोई भी नहीं हुआ।

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