पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१८

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धर्म और साहित्य।
 

किया जाता है, तुमने उनका अनुशीलन नहीं किया। यही कारण है किउनकी आलोचनामें तुमको आनन्द नहीं मिलता। लेकिन इस समय उनकी आलोचनाकी बड़ी जरूरत है। इसमें सन्देह नहीं कि साहित्यकी आलोचनामें सुख है, किन्तु जो सुख तुम्हारा उद्देश्य और प्राप्य होना उचित है उसका वह ( साहित्यका सुख ) एक क्षुद्र अंशमात्र है। साहित्य भी धर्मको छोड़कर नहीं है। क्योंकि साहित्यकी जड़ सत्य है और जो सत्य है वही धर्म है। यदि कोई ऐसा कुत्सित साहित्य हो जिसकी जड़ असत्य और अधर्म हो, तो उसे पढ़नेमें दुरात्मा और विकृतरुचि पाठकोंके सिवा और किसीको सुख नहीं मिल सकता। किन्तु साहित्यका सत्य और धर्म भी पूर्ण नहीं है; वह पूर्ण धर्मका एक अंशमात्र है। अतएव केवल साहित्य नहीं, किन्तु वह महान् तत्त्व धर्म, जिसका अंश साहित्यमें है, आलोचनाके योग्य है। साहित्यको मत छोड़ो, साहित्यकी सीढ़ीपर पैर रखकर धर्मके मञ्चपर चढ़ो।

लेकिन यह भी स्मरण रहना चाहिए कि आरंभमें कुछ दुःख या कष्ट उठाये बिना कोई भी सुख नहीं प्राप्त होता। विलासी और पापी लोग जिस इन्द्रियतृप्तिको ही सुख समझते हैं उसकी भी सामग्री यत्न और कष्टसे प्राप्त होती है। धर्मालोचनाका जो असीम और अनिर्वचनीय आनन्द है, उसके उपभोगके लिए प्रयोजनीय जो धर्ममन्दिरकी निचली सीढ़ीमें कठिन कर्कश पत्थर सदृश तत्त्व हैं उन्हें पहले अपने वशमें करो। अतएव आरंभमें धर्मविषयक लेख रूखे और कठिन जान पड़नेपर भी उनके प्रति अनादर करना उचित नहीं।