पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१८६

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सांख्यदर्शन।
 

गई। मनुष्यचित्तकी स्वाधीनताका सर्वथा लोप हो गया। मनुष्य विवेकशून्य, मंत्रमुग्ध, शृंखलबद्ध पशु बन गया।

इसी समय सांख्यकारने घोषणा की कि कर्म अर्थात् होम यागादिके अनु- ष्ठान पुरुषार्थ नहीं हैं, ज्ञान ही पुरुषार्थ है। ज्ञान ही मुक्ति है। कर्म पीडित भारतवर्षने उनकी इस घोषणाको ध्यानसे सुना।

सांख्य-तत्त्व ।

अधिकांश लोगोंका मत यह है कि जगत् सृष्ट (बनाया हुआ) है और कोई एक जगत्कर्ता है । जब सामान्य घटपटादि भी किसी एक कर्त्ताके बिना नहीं बनते हैं, तब इस असीम जगतका कोई कर्ता नहीं होगा, यह कैसे संभव हो सकता है ?

एक और दलके लोग हैं जो कहते हैं कि यह जगत् सृष्ट है और इसका कोई बनानेवाला है, यह प्रमाणित नहीं होता। ऐसे लोगोंको साधारणतः नास्तिक कहते हैं, परन्तु नास्तिक कहनेसे ही उन्हें मूर्ख नहीं कहा जा सकता। वे अपने पक्षका समर्थन युक्तिपूर्वक करते हैं । एक तो उनकी युक्तियाँ अत्यन्त दुरूह हैं और दूसरे यहाँ उनका परिचय देनेका कोई प्रयोजन नहीं मालूम होता है। फिर भी यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि ईश्वरका अस्तित्व और सृष्टिप्रक्रिया ये दो जुदा जुदा तत्त्व हैं। ईश्वरवादी भी कह सकते हैं कि हम ईश्वर मानते हैं; परन्तु उसकी सृष्टिक्रिया नहीं मानते। ईश्वर जगतका नियन्ता है। उसके बनाये हुए नियम आदि हम देखते हैं, परन्तु उन नियमोंके अतिरिक्त भी कोई सृष्टि है, यह हम नहीं कह सकते।

इस समय बहुतसे ईसाई इसी मतके माननेवाले हैं । इनमें कौनसा मत यथार्थ है और कौनसा अयथार्थ, यह हम नहीं कहेंगे। हमारे कहनेका अभिप्राय केवल यह है कि सांख्यकर्ता इसी मतके हैं। सांख्यकार ईश्वरका अस्तित्व नहीं मानते, यह हम आगे चलकर कहेंगे । वे एक ' सर्वविध सर्वकर्ता ' पुरुषको मानते हैं; परन्तु इस प्रकार पुरुष मानकर भी उसे सृष्टिकर्ता नहीं मानते हैं। सृष्टिको भी नहीं मानते हैं।उनके मतसे यह जगत् प्राकृतिक क्रिया मात्र है।

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