पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१९८

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सांख्यदर्शन।
 

नैयायिक कहते हैं कि वह प्रत्यभिज्ञान सामान्य विषयत्ववशतः होता है; जिस तरह केश कटकर फिर उग आते हैं। मीमांसक और भी कहते हैं कि वेद अपौरुषेय है, इसका एक कारण यह है कि परमेश्वर अशरीरी है-उसके तालु आदि वर्णोच्चारण स्थान नहीं है। नैयायिक उत्तर देते हैं कि परमेश्वर स्वभावतः अशरीरी है, तो भी भक्तानुग्रहके अर्थ उसका शरीरग्रहण, असंभव नहीं है।

मीमांसकोंने इन सब बातोंका उत्तर दिया है, परन्तु विस्तारभयसे वह छोड़ दिया जाता है। गरज यह कि वेदको हम क्यों मानें, इस तर्कके प्राचीन दर्शनशास्त्रोंसे केवल तीन उत्तर प्राप्त होते हैं:—

१ वेद नित्य और अपौरुषेय है, इस लिए वह मान्य है। किन्तु यह बात वेदहीमें मौजूद है कि वह अपौरुषेय नहीं है। यथा-" ऋचःसामानि जज्ञिरे" इत्यादि।

२ वेद ईश्वरप्रणीत है, इसलिए वह मान्य है । प्रतिवादी कहेंगे कि वेद ईश्वरप्रणीत है, इसका कोई विशिष्ट प्रमाण नहीं है। वेदमें लिखा है कि वेद ईश्वरसंभूत है। किन्तु जब वे वेदको मानते ही नहीं हैं, तब उसकी बात क्यों मानने चले ? इस विषयको लेकर जो वादानुवाद हो सकता है, उसका पाठक सहज ही अनुमान कर सकते हैं। उसको सविस्तर लिखनेकी आवश्यकता भी नहीं है। जो ईश्वरको ही नहीं मानते, वे वेदको ईश्वरप्रणीत कहकर स्वीकार नहीं कर सकते।

३. वेदकी निज शक्तिकी अभिव्यक्तिके द्वारा ही वेदकी प्रमाणता सिद्ध होती है। सांख्यप्रवचनकारने यही उत्तर दिया है । सायनने वेदार्थप्रकाशमें और शांकरब्रह्मसूत्र भाप्यमें इसी प्रकार निर्देश किया है । इस सम्बन्धमें केवल इतना ही वक्तव्य है कि यदि वेदमें इस प्रकारकी शक्ति हो, तो वेद अवश्य ही मान्य है। किन्तु वह शक्ति है या नहीं; यह एक स्वतंत्र विचार आवश्यक हो पड़ता है। अनेक लोग कहेंगे कि हम वेदमें कोई ऐसी शक्ति नहीं देखते। वेदका अगौरव हिन्दू शास्त्रोंमें भी मौजूद है।मुण्डकोपनिषत्के आरंभमें 'अपरा' और 'परा' इस तरह दो विद्यायें बतलाई गई हैं। इनमें वेदादिको अपरा और अक्षयप्राप्ति करानेवाली ब्रह्मविद्याको परा कहा है ।

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