पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/२०

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गौरदस बाबाकी झोली।
 

बाबू—तो फिर पास किसके है ?

बाबा—जिसके कुण्ठा नहीं है।

बाबू—कुण्ठा क्या ?

बाबा—समझा, कालेजके साहबोंने तुमसे मुफ्त ही रुपये ठग लिये। अगर वे ही रुपये मुझे दे देते तो अधिक उपकार होता, मैं हरिनाम सिखा देता। अब कोश खोलकर देखो।

बाबू—घरमें कोश नहीं है, एक आदमी माँग ले गया है।

बाबा—यह स्वीकार करनेमें तुम इतने कुंठित क्यों होते हो कि कोश तुम्हारे यहाँ था ही नहीं।

बाबू—ओह–वह कुण्ठा ! कुण्ठा-कुण्ठित ! जहाँ कोई कुणि्ठत होता वही वैकुण्ठ है ?☆ क्या ऐसी जगह भी कहीं है ?

बाबा—बाहर नहीं है, भीतर है।

बाबू—भीतर ? किसके भीतर ?

बाबा—मनके भीतर। जब तुम्हारा मन जगतमें किसीतरह कुण्ठित न होगा-जब चित्त शुद्ध होगा, इन्द्रियाँ वशमें होंगी, ईश्वरमें भक्ति, मनुष्योंके प्रति प्रीति और हृदयमें शान्ति उपस्थित होगी, जब सर्वत्र वैराग्य और सर्वत्र सुखका अनुभव होगा, तब तुम पृथ्वीमें रहो या न रहो , संसारमें रहो या न रहो, समझना कि वैकुण्ठमें पहुँच गये।

बाबू—तो वैकुण्ठ कोई शहर नहीं, केवल मनकी अवस्थामात्र है और विष्णु वहीं रहते हैं ?

बाबा—हाँ, कुण्ठारहित निर्विकार चित्तमें ही वे रहते हैं। विरक्तका हृदय उनके रहनेका स्थान है, इसीसे वे वैकुण्ठ हैं।

बाबू—किन्तु यह क्या ! वे तो शरीरधारी हैं। शरीरधारीके लिए रहनेको कोई घरबार होना चाहिए।

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☆ मालूम नहीं, व्याकरणमें बाबाकी कितनी गति थी। वैकुण्ठ भी विष्णुका एक नाम है। पण्डितलोग वैकुण्ठ शब्दकी व्युत्पत्ति करते हैं-विविधा कुण्ठा माया यस्य स वैकुण्ठः । लेकिन बाबाजीका अर्थ भी शास्त्रसम्मत है।