पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/२३

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बंकिम-निबन्धावली—
 

बाप रे बाप ! बाबूको उनके ही घरमें 'अरे मूर्ख !' कह दिया! बाबूने उसी समय दरबानको हुक्म दिया—'मार बदजातको !'

बाबाजीकी झोली पकड़कर मैं उन्हें बाहर घसीट लाया । बाहर आकर मैंने बाबाजीसे कहा—बाबाजी, आज भिक्षामें क्या पाया ?

बाबाजीने कहा—बदपूर्वक जन धातुके आगे क्ति प्रत्यय लानेसे जो रूप बनता है वही पाया। इसे भीखकी झोलीमें डाल रक्खो।

—श्रीहरिदास वैरागी।
 
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(२)
अष्टमीकी भीख ।

श्विन शुक्ल अष्टमीकी दुर्गापूजाके दिन बाबाजी नहीं देख पड़े।

यह संभव है कि वे किसी दुर्गामन्दिरमें हरिभजन कर रहे हों। यह भी असम्भव नहीं है कि उस अमूल्य अमृतमय नामके बदले पेड़ा बरफी आदि मिट्टीके ढेले ले लेकर वैष्णवोंकी उदारता और महिमाका प्रमाण दे रहे हों। मुट्ठीभर आटेके बदलेमें जो हरिनाम सुनाता है, उससे बढ़कर दाता और कौन होग ? मन-ही-मन इन्हीं सब बातोंकी विशषे रूपसे आलोचना करता हुआ मैं पूज्यपाद गौरदासबाबाका पता लगाने निकला । जिन सब घरोंमें दुर्गापूजाकी धूम थी, और दरवाजोंपर झुंडके झुंड भिक्षुक खड़े थे उन सभी घरोंमें ढूंढा, पर वह सफेद दाढीका झंडा फहराते कहीं न देख पड़ा। ढूँढ़ते ढूँढ़ते एक घरमें जाकर देखा, बाबाजी भोजन करने बैठे हैं।

देखकर मुझे विशेष प्रसन्नता नहीं हुई। वैष्णव होकर शक्तिका प्रसाद भोजन करना मुझे अच्छा न लगा। पास जाकर मैंने बाबाजीसे कहा—स्वामी, जान पड़ता है कि भूखसे धर्मकी उदारता भी बढ़ जाती है ?

बाबाजीने कहा—तब तो फिर चोरका धर्म बड़ा ही उदार मानना पड़ेगा। भैया, ऐसी बातें क्यों कर रहे हो?

मैं—वैष्णवको क्या शक्तिका प्रसाद खाना चाहिए ?

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