पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/२४

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अष्टमीकी भीख ।
 

बाबाजी—दोष क्या है ?

मैं—हम लोग विष्णुके उपासक हैं । शक्तिका प्रसाद क्यों खायें ?

बाबाजी—तुम यह जानते हो कि शक्ति क्या है ?

मैं—देवताकी शक्ति देवताकी स्त्रीको कहते हैं। जैसे नारायणकी शक्ति लक्ष्मी, शिवकी शक्ति दुर्गा, ब्रह्माकी शक्ति ब्रह्माणी, इसी तरह।

बाबाजी—दूर हो पापी ! उठ जा! तेरा मुँह देखकर भोजन करनेसे पाप लगता है। देवता क्या तेरी तरह वैष्णवी रखकर घर-गिरिस्ती करते हैं ? दूर हो।

मैं तो फिर शक्ति क्या है ?

बाबाजी—अच्छा, यह जलका कलसा उठा।

मैंने पानीका कलसा उठा लिया।

बाबाजीने एक जलकी बूंद गिराकर कहा—इसे तो उठा ।

मैं—यह भी कहीं हो सकता है ?

बाबाजी—तुममें पानीका घड़ा उठानेकी शक्ति है, पर बूंद उठानेकी शक्ति नहीं है। रोटी खा सकते हो ?

मैं—क्यों नहीं खा सकता ? रोज ही खाता हूँ।

बाबाजी—अच्छा, इस जलती हुई लकड़ीको खा सकते हो ?

मैं—जलती लकड़ी भी कहीं खाई जा सकती है ?

बाबाजी—तुममें रोटी खानेकी शक्ति है, पर जलती लकड़ी खानेकी शक्ति नहीं है। अब समझे कि देवताकी शक्ति क्या है ?

मैं—नहीं।

बाबाजी—देवता अपनी क्षमताके द्वारा अपने करनेके कामको पूरा करते हैं । उसी क्षमताका नाम शक्ति है । अग्निमें जलानेकी क्षमता ही उसकी शक्ति है, उसका नाम स्वाहा है। इन्द्र वर्षा करते हैं, वर्षा करनेकी शक्तिका नाम इन्द्राणी है। रुद्र संहार करते हैं, उनकी संहारशक्तिका नाम रुद्राणी है।

मैं—यह सब आप क्या कह रहे हैं ? जिस शक्तिसे मैं घड़ा उठाता हूँ या रोटी खाता हूँ, वह तो मुझे साक्षात् नहीं देख पड़ती। वह मेरी शक्ति

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