पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/२६

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अष्टमीकी भीख।
 

मैं—तो फिर महादेवकी मूर्ति बनाकर उनकी उपासना क्यों करते हैं ? वह क्या उनका रूप नहीं है?

बाबाजी—उपासनाके लिए जिसकी उपासना करो उसका एक रूप होना चाहिए। नहीं तो उपासनामें मन नहीं लगता । तुम उस निराकार विश्वव्यापी रुद्रके स्वरूपका ध्यान कर सकते हो?

मैंने चेष्टा की, पर वैसा हो न सका । तब बाबाजीकी बात स्वीकार करनी ही पड़ी।

बाबाजीने कहा—जिन्होंने उस तरह ध्यान करना सीख लिया है वे कर सकते हैं। किन्तु उसके लिए ज्ञानका प्रयोजन है । पर जिसके ज्ञान नहीं है वह क्या उपासना करे ही नहीं ? ऐसा तो उचित नहीं है । जिसके ज्ञान नहीं है वह जिस रूपसे रुद्रकी चिन्ता कर सकता है उसी रूपसे रुद्रकी उपासना करेगा। ऐसी अवस्थामें रूपकी कल्पना करके ध्यान करना सहज उपाय है । तुम यदि ऐसी एक रूपकी कल्पना करो कि वह संसारक्रियाका आदर्श समझा जाय, तो वह रुद्रहीकी मूर्ति है । इसीसे रुद्रके काल-भैरव रूपकी कल्पना की गई है। नहीं तो रुद्रके कोई रूप नहीं है।

मैं—यह तो समझा । किन्तु जैसे मेरी शक्ति मुझमें ही है, वैसे ही रुद्रकी शक्ति रुद्राणी भी रुद्र में ही है। तब शिव और दुर्गाकी अलग अलग मूर्ति बनाकर क्यों पूजते हैं?

बाबाजी—तुम्हारा ध्यान करनेसे ही तुम्हारी शक्तिका ज्ञान नहीं हो सकता। जिसने आगमें कभी हाथ नहीं डाला, वह आगको देखते ही यह नहीं समझ सकता कि आगमें हाथ जल जायगा। अतएव शक्ति और शक्तिशालीकी अलग अलग आलोचना किये बिना शक्तिको समझना संभव नहीं। रुद्र भी निराकार है और रुद्रकी शक्ति भी निराकार है । जो ज्ञानी नहीं है और इसीकारण निराकारके स्वरूपका ध्यान करने में असमर्थ है, उसे उपासनाके लिए शक्ति और देवताके अलग अलग रूपोंकी कल्पना करनी पड़ती है।

मैं—किन्तु वैष्णव लोग विष्णुकी ही उपासना करते हैं, रुद्रकी उपासना नहीं करते। इस कारण रुद्राणीका प्रसाद खाना आपके लिए सर्वथा अनुचित है।

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