पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/३०

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राधा-कृष्ण।
 

मैं—तो क्या मुसलमानके घर खाना भी खा लेना चाहिए?

बाबाजी—इस कानसे सुनता है और उस कानसे निकाल देता है ? जब सबको समदृष्टिसे देखते हैं, सबको अपने समान समझना ही वैष्णव धर्म है, तब हिन्दू-मुसलमान और छोटी-बड़ी जातिका भेद-भाव रखना भी उचित नहीं। जिसमें यह भेद-भाव है वह वैष्णव नहीं। आज तुझको कुछ वैष्णव धर्म समझाया है। अब किसी दिन ब्रह्मकी उपासना और कृष्णकी उपासना समझाऊँगा । धर्मकी पहली सीढ़ी बहुत देवोंकी उपासना है। दूसरी सीढ़ी सकाम ईश्वरोपासना है। तीसरी सीढ़ी निष्काम ईश्वरोपासना या वैष्णवधर्म अथवा ज्ञानयुक्त ब्रह्मोपासना है। चरमधर्म श्रीकृष्णकी उपासना है।

-श्रीहरिदास वैरागी।
 
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(३)
राधा-कृष्ण।

मैं एक पुराने गीतको धीरे गुनगुना रहा था ।-" ब्रज तजिके जनि जाहु नाथ।" यह सुनते ही 'आहा !' कहकर बाबाजी रोने लगे। मुझसे रहा न गया, मैं हँस पड़ा। बाबाजीने खड़े होकर कहा—हँसता क्यों है रे मूर्ख ?

मैं—तुम जराजरासी बातपर रोने लगते हो, इसीसे मैं हंस रहा हूँ।

बाबाजी—तू जिसे जरासी बात कहता है, उसे कुछ समझा भी ? या तोतेकी तरह खाली रट ही रहा है।

मैं—समझा क्यों नहीं ? राधा कृष्णसे कह रही हैं—" तुम व्रजको छोड़कर न जाना स्वामी।"

बाबाजी—व्रज क्या है ?

मैं—कृष्ण जहाँ गायें चराते और गोपियोंके बीच में बंसी बजाते थे।

बाबाजी—चल मूर्ख ! व्रज धातु किस अर्थमें है ?

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