पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/३२

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राधा-कृष्ण।
 

मैं—तो फिर वह कोई गोपिनी नहीं है ?

बाबाजी—गोपिनी नहीं-गोपी शब्द है। जानते हो, गोपी किसे कहते

मैं—गोपकी स्त्री गोपी।

बाबाजी—गो शब्दका अर्थ है पृथ्वी। जो धर्मात्मा है, वे ही पृथ्वीके रक्षक हैं। वे ही गोप हैं। स्त्रीलिंगमें वे ही गोपी हैं।

मैं—तो फिर गोलोक क्या है ?

बाबाजी—यह पृथ्वी ही गोलोक—भूलोक—है।

मैं—आपने सब उलट दिया। अच्छा, यदि सभी रूपक है, तो फिर नन्द क्या है ?

बाबाजी—नन्द धातु हर्ष और आनन्दके अर्थमें है। हम लोग उपसर्गके बिना बात नहीं करते, यही एक बड़ी आफत है । आनन्द ही, नन्द है।

मैं—भगवान् क्या आनन्दमें पैदा होते हैं, जो उन्हें नन्द-नन्दन कहते हैं ?

बाबाजी—कृष्णको नन्दका पुत्र कोई नहीं कहता । वे वसुदेवके पुत्र हैं; नन्दके घर कुछ दिनके लिए जाकर रहे थे।

मैं—इसका क्या अर्थ है ?

बाबाजी—परमानन्द-धाम ही ईश्वरका निवास है । अर्थात् वे आनन्दमें ही विद्यमान हैं।

मैं—तो फिर यशोदा कहाँ जायँगी ? उन्होंने कृष्णको पाला-पोसा था, इसका तात्पर्य क्या है ?

बाबाजी—ईश्वरके यश अर्थात् महिमाके कीर्तन द्वारा वे हृदयमें स्थापित और परिवर्द्धित किये जाते हैं।

मैं—तो सभी रूपक है ?

बाबाजी—मेरा दृढ विश्वास है कि जगदीश्वरने सशरीर पृथ्वीपर अवतारलेकर जगतमें धर्म स्थापित किया था । जैसा कि उन्होंने आप गीतामें कहा है—'धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।' वे रूपक नहीं हैं। पुराण-लेखकने उनको बीचमें स्थापित करके यह धर्मसम्बन्धी रूपक रचा है। कृष्ण नामका और एक अर्थ है, इसीसे इस रूपकके रचनेमें एक

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