पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/४७

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बंकिम-निबन्धावली—
 

कहनेका तात्पर्य यह है कि धन-संचय आदिकी तरह सुखशून्य, शुभफल- शून्य, महत्त्वशून्य कार्य प्रयोजनीय होनेपर भी कभी मनुष्य-जीवनका उद्देश्य कहकर स्वीकृत नहीं हो सकते। यह जन्म भविष्य पारलौकिक जीवनके लिए परीक्षामात्र है। पृथ्वीतल स्वर्गलाभके लिए कर्मभूमि मात्र है। यह बात यदि यथार्थ हो, तो परलोकमें सुख देनेवाले कार्यका अनुष्ठान ही जीवनका उद्देश्य होना उचित है। किन्तु पहले तो वैसे कार्य कौन हैं, इसी विषयमें मतभेद है—निश्चय करनेका बिल्कुल कोई उपाय नहीं है और दूसरे परलोकके अस्ति- स्वका ही कोई प्रमाण नहीं है।

तीसरे परलोकके रहने पर भी—यह पृथ्वी परीक्षा-भूमि मात्र होने पर भी—ऐहिक और पारलौकिक भलाईमें विभिन्नता होनेका कोई कारण नहीं देख पड़ता। यदि परलोक है तो जिस व्यवहारसे परलोकमें भलाई होनेकी संभावना है, उसी कार्यसे इस लोकमें भी भलाई होनेकी संभावना है। इस लोकमें उसीसे भलाई होनेकी संभावना न होनेका कारण अबतक कोई बतला नहीं सका। धर्मका आचरण यदि मंगलका कारण हो तो यह बात किस तरह प्रामाणित होती है कि वह केवल परलो- कमें ही मंगलप्रद है, इस लोकमें नहीं। ईश्वर स्वर्गमें बैठकर क़ाज़ी की तरह न्याय-विचार करते हैं—पापीको नरककुंडमें डालते हैं और पुण्यात्माको स्वर्ग भेजते हैं, इन प्राचीन मनोरंजक दन्तकथाओंको प्रमाण नहीं माना जा सकता । जो लोग कहते हैं कि इस लोकमें अधार्मिककी भलाई और धर्मात्माकी बुराई होते देखी जाती है, उनकी दृष्टिमें केवल धनसम्पत्ति आदि ही शुभ या भलाई है। उनका विचार इस मूलमें ही होने- वाली भ्रान्तिसे दूषित है। यदि पुण्यकर्म परलोकमें शुभप्रद है तो वह इस लोकमें भी शुभप्रद होगा। किन्तु वास्तवमें केवल पुण्यकर्म क्या इस लोकमें और क्या परलोकमें, शुभप्रद नहीं हो सकता। जिस प्रकारकी मनोवृत्तिका फल पुण्यकर्म है, उसीका दोनों लोकोंमें शुभप्रद होना संभव है। यदि कोई केवल मजिस्ट्रेटसाहबकी प्रेरणाके वशीभूत होकर, या यशकी लालसासे, अप्रसन्न चित्तसे दुर्भिक्षनिवारणके लिए लाखों रुपये देता है, तो वह उससे परलोकके लिए पुण्य सञ्चय कैसे

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