पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/५०

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चित्तकी शुद्धि।
 

नहीं है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि जितेन्द्रिय पुरुष स्पृहा- शून्य होकर अच्छे अच्छे भोजन भी कर सकता है। कहनेका तात्पर्य यह है कि इन्द्रियोंमें आसक्तिका अभाव ही इन्द्रिय-संयम है। आत्मरक्षा या धर्मरक्षा अर्थात् ईश्वरीय नियमकी रक्षाके लिए जितना इन्द्रिय-भोग आवश्यक है उससे अधिक इन्द्रिय-तृप्तिकी जो अभिलाषा करता है वही इन्द्रियोंका संयम नहीं कर सकता। और, जो वैसी अभिलाषा नहीं रखता वही जितेन्द्रिय है। जिसे इन्द्रिय-परितृप्तिमें कोई सुख नहीं है, कोई आकांक्षा नहीं है, केवल धर्मरक्षाका ध्यान है, वही संयतेन्द्रिय है।

ऐसे अनेक आदमी देखे जाते हैं जो जाहिरमें इन्द्रिय-परितृप्तिसे बिल्कुल विमुख हैं, पर मनके कलुषको नहीं धो सके। वे लोकलजासे, लोगोंसे प्रतिपत्ति प्राप्त करनेके लिए, या ऐहिक उन्नतिके लिए, अथवा धर्मका ढोंग रचनेके लिए संयतेन्द्रिय पुरुषका सा आचरण करते हैं, पर उनके हृदयके भीतर इन्द्रिय-भोगकी लालसा बहुत ही प्रबल होती है। जन्मसे लेकर मृत्युतक कभी कुमार्गगामी न होनेपर भी वे इन्द्रिय-संयमसे बहुत दूर रहते हैं। जो लोग वारम्वार इन्द्रिय-परितृप्तिका उद्योग करके उसमें सफल- ता भी प्राप्त करते हैं उनमें और इन धर्मात्मा लोगोंमें बहुत ही कम भेद होता है। दोनों समान रूपसे इस लोकके नरककी आगमें जला करते हैं। इन्द्रियोंको तृप्त करो या न करो, इन्द्रिय-संयम तभी होगा जब भूल कर भी मनमें इन्द्रियपरितृप्तिका खयाल न हो—आत्मरक्षा या धर्मरक्षाके लिए इन्द्रियोंको चरितार्थ करने पर भी वह दुःखके सिवा सुख न जान पड़े। यह न होने पर कठोर योग और तपस्या सब वृथा है। इसी बातको स्पष्ट करनेके लिए हिन्दुओंके पुराणों और इतिहासोंमें ऋषियोंके सम्बन्ध की अनेक कथायें हैं। स्वर्गसे एक अप्सरा आई और उसने एक ऋषिको तपस्यासे भ्रष्ट कर दिया। वह भी उसपर आसक्त हो गये। इन सब

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  • रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।

आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥—गीता अ० १, श्लो० ६४ ॥

अर्थात् राग-द्वेष-हीन और अपने वशीभूत इन्द्रियोंके द्वारा विषयभोग करता हुआ विधेयात्मा पुरुष प्रसन्नता (अर्थात् चित्तशुद्धि) को प्राप्त होता है।

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