पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/५१

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बंकिम-निबन्धावली—
 

कथाओंसे हमें एक यह शिक्षा प्राप्त होती है कि योग या तपस्यासे इन्द्रिय- संयमकी प्राप्ति नहीं होती। कार्यक्षेत्रमें—संसारधर्ममें—ही इंद्रिय-संयम प्राप्त किया जाता है। नित्य वनमें रहकर, इन्द्रियतृप्तिकी सामग्रियोंसे दूर रहकर, सब विषयोंसे निर्लिप्त होकर यह अवश्य समझा जा सकता है कि मैंने इन्द्रियोंको वशमें कर लिया, किन्तु कच्चा घड़ा जैसे पानी लगते ही नहीं टिकता वैसे ही ऐसा कच्चा इन्द्रिय-संयम भी लोभके आते ही नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। जो नित्य इन्द्रिय-भोगोपयोगी सामग्रियोंके संसर्गमें रहता है, उनके साथ युद्ध करके कभी जीतता और कभी हारता है, वही अन्तको इन्द्रियोंको जीत सकता है। विश्वामित्र या पराशर इन्द्रियोंको नहीं जीत सके, और भीष्म या लक्ष्मणने इन्द्रियोंको जीत लिया। यह हिन्दूधर्मकी एक बहुत ही गूढ बात है।

किन्तु इन्द्रिय-संयम भी अपेक्षाकृत तुच्छ है। चित्तशुद्धिका उसकी भी अपेक्षा बड़ा और कठिन लक्षण है। बहुत लोग ऐसे हैं जो जितेन्द्रिय हैं, किन्तु अन्य कारणोंसे उनका चित्त शुद्ध नहीं है। उनके मनमें इन्द्रिय-सुखकी इच्छा न रहनेपर भी यह वासना बड़ी प्रबल है कि मैं अच्छा रहूँ, मेरे सब अच्छे रहें। वे ऐसी कामना करते हैं कि मुझे धन मिले, मेरा मान हो, मुझे सम्पत्ति, यश और सौभाग्य मिले, मैं बड़ा होऊँ, और सब मेरी अपेक्षा छोटे रहें। जिनके ये सब अभीष्ट सिद्ध होते हैं वे सदा नित्य प्रति इसी चेष्टा और इसी उपयोगमें व्यस्त रहते हैं। ऐसा कोई काम नहीं जिसे वे इसके लिए न करें, ऐसा कोई विषय नहीं जिसमें वे इसे छोड़कर मन लगावें। इन्द्रियासक्त पुरुषोंकी अपेक्षा भी ये लोग निकृष्ट हैं। इनके निकट धर्म, कर्म, ज्ञान और भक्ति कोई चीज नहीं है। ईश्वरको मानने पर भी उनके लेखे ईश्वर नहीं है, जगतके रहने पर भी उनके लेखे जगत् नहीं है। केवल वे ही हैं, उनके सिवा और कुछ नहीं है। उनका यह अपना आदर और स्वार्थपरता इन्द्रियासक्तिसे भी बढ़कर चित्तशुद्धिका विघ्न है। परोपकारका माव आये बिना कभी चित्त-शुद्धि नहीं होती। जब यह समझेंगे कि जैसे हम हैं वैसे ही दूसरा है, जब जैसे अपने सुखको खोजेंगे वैसे ही दूसरेके सुखको भी खोजेंगे, जब अपनेसे दूसरोंको अलग न समझेंगे, जब अपनेकी

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