पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/५२

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चित्तकी शुद्धि।
 

अपेक्षा भी दूसरोंको अपना समझेंगे, जब धीरे धीरे अपनेको भूल जाकर दूसरेको ही सर्वस्व जान सकेंगे, जब दूसरोंमें अपनेको लीन कर देंगे, जब हमारा आत्मा विश्वव्यापी विश्वमय हो जायगा, तभी चित्तकी शुद्धि होगी। यदि ऐसा न हुआ तो लँगोटी लगाकर, संसारको छोड़कर, भगवानका नाम लेकर द्वार-द्वारपर भीख माँगते फिरनेसे चित्तशुद्धि न होगी। पक्षान्तरमें राजसिंहासनपर हीरा पन्नाके जड़ाऊ गहने पहने बैठा हुआ राजा भी यदि एक भिक्षुक प्रजाके दुःखको अपना ही दुःख समझ सकता है, तो उसका चित्त शुद्ध समझना चाहिए। जो ऋषि विश्वामित्रको एक गऊ नहीं दे सके, उनका चित्त शुद्ध नहीं था । और, जो राजा शरणागत कबूतरके लिए अपना मांस काटकर बाजको दे सके थे उनका चित्त शुद्ध था।

परन्तु इसकी अपेक्षा भी चित्तकी शुद्धिका एक बड़ा भारी लक्षण है। जो सब शुद्धियोंकी समष्टि करनेवाले हैं, जो शुद्धिमय हैं, जिनकी कृपा, ध्यान और अनुकम्पाके बिना शुद्धि नहीं होती उनमें गाढी भक्ति ही चित्त- शुद्धिका प्रधान लक्षण है। इन्द्रियसंयम या परोपकारका भाव, उनके सम्पूर्ण स्वभावके चिन्तन और उनके प्रति गाढ़े अनुरागके सिवा कभी नहीं प्राप्त हो सकता। यह भगवद्भक्ति भी चित्तशुद्धि और धर्मकी जड़ है।

चित्तशुद्धिके प्रथम लक्षणके सम्बन्धमें जो कहा गया है उसका स्थूल तात्पर्य है हृदयमें शान्ति । दूसरे लक्षणके सम्बन्धमें जो कहा गया है उसका स्थूल तात्पर्य है मनुष्योंके प्रति प्रीति। तीसरे लक्षणके सम्बन्धमें जो कहा गया है उसका तात्पर्य है ईश्वरकी भक्ति । अतएव चित्तशुद्धिका सम्पूर्ण लक्षण हुआ हृदयमें शान्ति, मनुष्योंके प्रति प्रीति औरै ईश्वरकी भक्ति। यही हिन्दूधर्मके मर्मकी बात है।

भक्ति-प्रीति-शान्तिमयी इस चित्तशुद्धिको हिन्दूशास्त्रकारोंने किस तरह समझाया है सो बतलानेके लिए उदाहरणके तौरपर श्रीमद्भागवतके तृतीय स्कन्धसे भगवान् कपिलदेवकी निम्नलिखित उक्ति यहाँपर उदृत की जाती है:—

लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतं ।

अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥ १० ॥

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