पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चित्तकी शुद्धि।
 

आत्मानश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।

तस्य भिन्नदृशो मृत्युर्विदधे भयमुल्बणम् ॥ २४ ॥

अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।

अर्हयेद्दानमानाभ्यां मैत्र्याभिनेन चक्षुषा ॥ २५॥

—भागवत, तृतीयस्कन्ध, २९ वाँ अध्याय ।
 

कपिलदेवजी अपनी माता देवहूतिसे कहते हैं कि पुरुषोत्तममें अकारण और अन्तररहित भक्ति ही निर्गुण भक्तियोगका लक्षण है ॥ १०॥ मेरे ऐसे भक्त मेरी सेवाके लिए मेरी दी हुई सालोक्य ( मेरे साथ एक लोकमें निवास), सार्टि ( मेरे समान एश्वय ), सामीप्य ( मेरे समीप रहना ), सारूप्य (मेरा ऐसा रूप ) और एकत्व ( अर्थात् सायुज्य ) आदि सब प्रकारकी मुक्तियोंको भी नहीं ग्रहण करते ॥ ११॥ यही आत्यन्तिक भक्तियोग है। इसके द्वारा त्रिगुणातीत होकर जीव मेरे भावको प्राप्त हो जाता है ॥ १२ ॥ इस प्रकारके भक्तियोगके साधन आगे कहे जाते हैं। अपने श्रेष्ठ निष्काम धर्मद्वारा इस भक्तिका सेवन करना, पञ्चरात्र आदिमें वर्णित प्रशस्त कर्मकाण्डके द्वारा पूजा करना, मेरी प्रतिमा आदिका दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति, वन्दना, सब प्राणियोंमें मेरे भावकी चिन्ता, धैर्य, वैराग्य, महात्माओंका सम्मान, दीनों- पर दया, आत्मतुल्य व्यक्तियोंसे मैत्री, यम अर्थात् बाहरी इन्द्रियोंका दमन, नियम अर्थात् भीतरी इन्द्रियोंका निग्रह, आध्यात्मिक विषयोंका श्रवण, मेरे नामोंका कीर्तन, सरलता, सत्सङ्ग और अहङ्कारका त्याग ॥ १३ ॥ १६ ॥ मेरे धर्मके इन गुणोंसे जिसकी चित्तशुद्धि हो गई है वह पुरुष मेरे गुणोंका श्रवण करते ही अनायास मुझे प्राप्त हो जाता है ॥ १७ ॥ जैसे गन्ध वायुके द्वारा अनायास ही घ्राणेन्द्रिय तक पहुँच जाता है वैसे ही भक्तियोग- युक्त शुद्धचित्त परमात्माको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ मैं आत्मारूपसे सदा सब प्राणियोंमें अवस्थित हूँ। तथापि कोई कोई मूढ़ पुरुष मेरी अवहेला करके प्रतिमा-पूजारूप व्यर्थकी विडम्बना करते हैं। ॥ १९ ॥ सब प्राणियोंमें अवस्थित आत्मारूप मुझ ईश्वरको छोड़ कर जो कोई मूर्खतासे प्रतिमाकी पूजा करता है, वह राखमें ही होम करता है ॥ २०॥ पराये शरीरमें मुझसे द्वेष करनेवाले, अभिमानी, भेदभावपूर्ण

४१